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६१० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
__ तृतीय अध्याय में 'स्वभाववाद' पर विचार किया गया है। स्वभाववाद एक प्राचीन सिद्धान्त है, जिसके अनुसार समस्त कार्यों का कारण स्वभाव है। वेद में स्वभाववाद का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता, किन्तु नासदीय सूक्त के अन्तर्गत सष्टि विषयक जिन विभिन्न मतों का उल्लेख हुआ है, उनके आधार पर पं. मधुसूदन ओझा ने दश वादों का उत्थापन किया है। इनमें एक अपरवाद है। अपर का अर्थ पं. ओझा ने अपर अर्थात् स्व करते हुए अपरवाद को स्वभाववाद के रूप में प्रतिष्ठित किया है।
श्वेताश्वतरोपनिषद् में जगदुत्पत्ति का कारण 'स्वभाव' को आचार्य शंकर के भाष्य में पदार्थ की प्रतिनियत शक्ति के रूप में प्रतिपादित किया गया है। हरिवंश पुराण में जगत् को स्वभावकृत कहा गया है- भगवद् गीता में मानव स्वभाव के आधार पर वर्ण भेद का प्रतिपादन भी स्वभाव की कारणता को स्पष्ट करता है। स्वभावं भूतचिन्तकाः कहकर महाभारत में भूत चिन्तकों को स्वभाववादी के रूप में प्रकाशित किया गया है। स्वभाववाद का महाभारत में पोषण भी है और निरसन भी।
बुद्धचरित में अश्वघोष का स्वभाववाद के संबंध में निम्नांकित श्लोक प्रसिद्ध है
कः कण्टकस्य प्रकरोति तैक्ष्ण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां वा। स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः।।
स्वभाववाद के बीज वेद, उपनिषद्, पुराण आदि में भले ही उपलब्ध रहे हों और स्वभाववाद का स्पष्ट रूप भी पुराण में मिलता हो तथापि बद्धचरित का उपर्युक्त श्लोक ही सभी दार्शनिक कृतियों में स्वभाववाद के निरूपण के समय उद्धृत होने से अपनी महत्ता एवं प्राचीनता प्रकट करता है। बृहत्संहिता में वराहमिहिर ने 'कालं कारणमेके स्वभावमपरे जगुः कर्म' कथन से स्वभाववाद की मान्यता की ओर संकेत किया है।
सांख्यकारिका की माठरवृत्ति में स्वभाव की कारणता का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी स्वभाववाद का उल्लेख हुआ है
अनिमित्ततो भावोत्पत्तिः कण्टकतैक्ष्ण्यादिदर्शनात्। वाक्यपदीय में भर्तृहरि ने स्वभाव की व्याख्या की।
बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित (७०५ई.) ने तत्त्वसंग्रह में स्वभाववाद का विधिवत् उपस्थापन एवं प्रत्यवस्थान किया है।
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