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उपसंहार ६११ उदयनाचार्य ने न्यायकुसुमांजलि में आकस्मिकवाद के अन्तर्गत स्वभाववाद के पूर्वपक्ष को प्रस्तुत कर उसका उत्तर पक्ष भी दिया है तथा उसे नियतपूर्ववृत्तित्व के रूप में अंगीकार किया है। चार्वाक दर्शन में जगत् की विचित्रता को स्वभाव से ही उत्पन्न माना जाता है।
जैनाचार्यों ने प्रामाणिकता के साथ स्वभाववाद के पूर्वपक्ष को उपस्थापित किया है तथा स्वभाववाद की विभिन्न विशेषताओं को अपने ग्रन्थों में समायोजित किया है। जैन ग्रन्थों में चर्चित स्वभाववाद से सम्बद्ध कतिपय बिन्दु इस प्रकार हैं१. प्रश्नव्याकरण सूत्र में 'सहावेण' शब्द का प्रयोग हुआ है, जो स्वभाववाद की
ओर संकेत करता है। अभयदेवसूरि ने इस शब्द की प्रश्नव्याकरण की टीका में विस्तार से विवेचना करते हुए कहा है कि स्वभाववाद के अनुसार समस्त प्राणियों का व्यवहार पूर्वकृत कर्मों से नहीं, अपितु स्वभाव से संचालित
होता हैं। २. नन्दीसूत्र की अवचूरि में स्वभाववाद के संबंध में स्पष्ट किया गया है कि जिसके होने पर होना तथा जिसके नहीं होने पर नहीं होना- यह अन्वयव्यतिरेक का अनुविधान भी स्वभावकृत है। करोड़ों प्रयत्न करने पर भी
स्वभाव को स्वीकृत किये बिना प्रतिनियत व्यवस्था नहीं बनती है। ३. लोकतत्त्वनिर्णय में हरिभद्रसूरि का कथन है कि जगत् में जो-जो सत् पदार्थ
हैं, वे सभी स्वभावजन्य हैं। शास्त्रवार्ता समुच्चय में उन्होंने स्पष्ट किया है कि जीव के गर्भ से लेकर स्वर्गगमन तक के सभी कार्य स्वभाव से सम्पन्न होते हैं। स्वभाव के नियमन से ही कार्य का कभी होना तथा न होना रूप
कादाचित्कत्व संभव होता है। ४. पदार्थों की उत्पत्ति के साथ उनका विनाश भी उनके स्वभाव से ही नियत
देश-काल में होता है। इस संसार में मूंग, अश्व, माष आदि का पाक भी स्वभाव के बिना नहीं होता क्योंकि जिस वस्तु में पकने का स्वभाव नहीं है,
वह काल तथा अन्य कारणों के होने पर भी परिपक्व नहीं होती। ५. पूर्व-पूर्व उपादान परिणामों को उत्तरोत्तर होने वाले तत्-तत् उपादेय परिणामों
के प्रति कारण मान लेने से स्वभाववाद में सहकारिचक्र की कल्पना
अनावश्यक हो जाती है। ६. स्वभाववाद के अनुसार बीज का जो चरम क्षणात्मक परिणाम होता है,
उससे अंकुर का प्रथम क्षणात्मक परिणाम उत्पन्न होता है। उत्पाद्य अंकुर
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