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उपसंहार ६०९ १. कार्य के प्रति काल अवश्यक्लुप्त नियत पूर्ववर्ती है, इसलिए एकमात्र वही
कार्य का कारण है। कारण कहे जाने वाले अन्य पदार्थ अवश्यक्लप्त
नियतपूर्ववर्ती काल से भिन्न होने से अन्यथासिद्ध है। २. काल को कार्य का यदि असाधारण कारण न माना जाये तो गर्भादि सभी
कार्यों की उत्पत्ति अव्यवस्थित हो जाएगी। ३. काल नित्य है एवं एक रूप है। काल कारण की सभी कार्यों के साथ
अन्वय-व्यतिरेक व्याप्ति होती है। जैनाचार्यों ने कालवाद के निरसन में अनेक प्रबल तर्क दिए हैंमल्लवादी क्षमाश्रमण कहते हैं कि त्रिकाल कूटस्थ काल में परमार्थतः कारण-कार्य का विभाग नहीं हो सकता। कारण-कार्य का विभाग नहीं होने
से व्यवहार की व्यवस्था भी नहीं बन सकती। २. हरिभद्रसूरि का तर्क है यदि अन्य कारणों से निरपेक्ष केवल काल से
कार्योत्पत्ति स्वीकार की जायेगी तो अमुक कार्य की उत्पत्ति के समय में अन्य सभी कार्यों की उत्पत्ति की भी आपत्ति होगी। हरिभद्रसूरि अन्य तर्क देते हैं कि एकमात्र काल को कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि काल के समान होने पर भी कार्य समान नहीं देखा जाता, इसलिए अन्य हेतु भी
अपेक्षित हैं। ३. शीलांकाचार्य का तर्क है कि एक स्वभावी, नित्य एवं व्यापक काल का
ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है। वे अन्य तर्क में कहते हैं कि यदि काल ही एकमात्र कारण हो तो समान काल में सभी किसानों के खेतों में मूंगों के
पकने आदि की समान फल प्राप्ति होनी चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता है। ४. अभयदेवसूरि का तर्क है कि वर्षाकाल आदि काल कारण के होने पर भी
वर्षा का होना रूप कार्य निरन्तर नहीं चलता। इससे काल की नित्यता एवं एकरूपता भी खण्डित होती है। साथ ही काल का स्वभावभेद भी प्रकट होता है।
जैन दार्शनिकों ने 'पंच समवाय' सिद्धान्त में पाँच कारणों के अन्तर्गत काल की भी कारणता स्वीकार की है, किन्तु वे काल की एकान्त कारणता को अंगीकार नहीं करके अन्य कारणों की भी अपेक्षा स्वीकार करते हैं।
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