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४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
२. उपादानग्रहणात्- जिस कारण का कार्य के साथ अभिन्न संबंध होता है, वह उपादान कारण कहलाता है। उपादान कारण के होने पर कार्य का होना तथा न होने पर नहीं होना रूप अविनाभाव संबंध भी सत्कार्यवाद को सिद्ध करता है। उपादान कारण को ग्रहण न करने पर किसी भी कारण से कोई भी कार्य पैदा हो जाएगा। जैसेमिट्टी से कपड़ा और कम्बल भी तैयार हो जायेंगे, जबकि यह असंभव है। अत: उपादानकारण का कार्य के साथ संबंध सत्कार्यवाद को पुष्ट करता है।
३. सर्वसम्भवाभावात्- सभी कारणों से सभी कार्यों की उत्पत्ति का अभाव पाया जाता है। अत: संबंधित कारण ही उस कार्य को करने में समर्थ होने से कार्य कारण में सत् है। यदि असंबंधित कारण से भी कार्य पैदा होने लग जाए तो कोई भी कार्य किसी भी कारण से उत्पन्न होने लग जाए, किन्तु ऐसा जगत् में परिलक्षित नहीं होता। अतः सभी कार्य कारण में सत् है।
४. शक्तस्य शक्यकरणात्- समर्थ कारण से ही कार्य उद्भूत होता है। प्रत्येक कारण पृथक्-पृथक् कार्य के प्रति शक्ति सम्पन्न होता है। जिस कारण में जैसी शक्ति नियत होती है, वह शक्ति उसी प्रकार का कार्य सम्पादित करती है। अपनी शक्ति और सामर्थ्य से विपरीत कार्य में कारण के परिणत न होने से सत्कार्यवाद की सिद्धि होती है। जैसे- आम के बीज से आम ही होता है।
५. कारणभावात्- कार्य का मूल कारण' है। यथा- वृक्ष का मूल बीज है। बीज में रही हुई वृक्ष की सत्ता बीज से अभिन्न होती है, उसी प्रकार कारण से कार्य अभिन्न है। कार्य-कारण की अभेदता ही कार्य की उत्पत्ति से पूर्व उसके सत् होने की पुष्टि करती है। जैसे-पट तन्तुसमूह रूप कारण से भिन्न नहीं है।
इस प्रकार कारण की ही सदैव कार्य में परिणति देखे जाने से सत्कार्यवाद को परिणामवाद भी कहा जाता है। जैसे दूध का परिणाम दही है।
कारण में कार्य जिस रूप से रहता है, उस रूप में वह साधारणतया इन्द्रिय से दर्शनीय नहीं है, क्योंकि कारण में कार्य सूक्ष्म रूप से स्थित होता है। सबसे सूक्ष्मतम स्थिति प्रकृति होती है। प्रकृति ही वह कारण है, जिससे सभी कार्य उत्पन्न होते हैं और उसी में विलीन हो जाते हैं। प्रकृति ही वह केन्द्र है जहाँ से सभी कार्य प्रसार पाते हैं और पुनः उसी में सिमट जाते हैं। प्रकृति रूपी कारण में कार्य सदैव सत् रहता है चाहे कार्य व्यक्त हो या अव्यक्त। अतः प्रकृति के रूप में कार्य की उपस्थिति होने से सत्कार्यवाद का सिद्धान्त सिद्ध होता है।
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