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सत्कार्यवाद
जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय ३
सांख्यदर्शन में कारण- कार्य सिद्धान्त पर गहनता से विचार हुआ है। वहाँ कारण में कार्य की सत्ता, उसके प्रकट होने से पूर्व भी स्वीकार की गई है। कार्य की अपने कारण से अभिव्यक्ति मात्र होती है, सर्वथा असत् कार्य प्रकट नहीं होता। कार्य को अपने प्रकटीकरण से पूर्व सत् मानने के कारण सांख्य का कारण कार्य सिद्धान्त सत्कार्यवाद के नाम से प्रसिद्ध है। सांख्य में कारण को अव्यक्त अवस्था तथा कार्य को व्यक्त अवस्था की संज्ञा दी गई है। सांख्य में २५ तत्त्व परिगणित हुए हैं- पुरुष, प्रकृति, महत्, बुद्धि, एकादश इन्द्रियाँ, पंच महाभूत और पंच तन्मात्राएँ। इनमें से पुरुष अकारण और अकार्य है, किन्तु प्रकृति आदि २४ तत्त्वों में कारण-कार्य घटित होते हैं। प्रकृति अन्य २३ कार्यों (तत्त्वों) की मूल कारण है। प्रकृति की अन्तर्निहित प्रयोजनवत्ता के कारण त्रिगुणों का इस प्रकार संगठन होता है कि वे महत् के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं तथा महत् के त्रिगुणों का ऐसा संगठन होता है कि वे पंचभूत, एकादश इन्द्रियाँ और पंचतन्मात्रा में अभिव्यक्त हो जाते हैं। इस प्रकार सृष्टि की उत्पत्ति और उसमें होने वाले कार्य प्रकृति आदि तत्त्वों का परिणाम है। प्रकृति आदि तत्त्वों की संरचना ही कारण कार्य के सिद्धान्त को सत्कार्यवाद के रूप में अंकित करती है।
सांख्य का मत है कि ऐसी कोई भी चीज पैदा नहीं हो सकती जो पहले से विद्यमान न हो। जैसे- तिलों में विद्यमान तेल को मशीन की सहायता से निकाला जाता है। तेल जो तिल में समाहित था वह तरल पदार्थ के रूप में प्रकट हो गया। तेल प्रकट होने से पूर्व भी तिलरूपी कारण में सत् था । अतः जो पूर्व में सत् होता है वह ही बाद में प्रकट होता है।
सत्कार्यवाद की सिद्धि में पाँच हेतु 'सांख्यकारिका' की नवम कारिका में इस प्रकार उल्लिखित हैं
असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् ।
शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ।।
१. असदकरणात् -असत् कारण से सत् कार्य की उत्पत्ति संभव नहीं है। असत् यानी अभाव, अभाव से भाव का पैदा होना प्राप्त नहीं होता। हजारों प्रयत्न करने पर भी कारण व्यापार के पूर्व जो कार्य असत् होता है उसे सत् नहीं बनाया जा सकता। जैसे- हजारों किसान मिलकर भी आम के बीज से जामुन पैदा नहीं कर
सकते।
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