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जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय ५ विवर्तवाद ( सत्कारणवाद)
क्रियाओं के क्रम का निर्धारक कारण-कार्य सिद्धान्त है। यह दर्शनशास्त्र का प्रमुख एवं विचारणीय सिद्धान्त है। कोई भी ऐसा दर्शन नहीं होगा जिसने इस सिद्धान्त पर अपना मत प्रकट नहीं किया हो। अत: वेदान्त दर्शन भी विवर्तवाद के रूप में सत्कारणवाद सिद्धान्त को स्वीकार करता है।
वेदान्ती कारणरूप ब्रह्म को सत् मानते हैं, कार्य रूप जगत् को असत् स्वीकार करते हैं। वे 'सत्' शब्द का अर्थ केवल वस्तु की पूर्व विद्यमान सत्ता ही नहीं वरन् त्रिकालाबाधित वस्तु लेते हैं जो सदैव एक सी स्थिति में रहती है (अपरिवर्तनशील), जिसे देश और काल की सीमा में भी विभक्त नहीं किया जा सकता।
वेदान्ती के मतानुसार जगत् का मूल कारण 'ब्रह्म' कहा गया है। यह कारण दो प्रकार का है- १. निमित्त कारण २. उपादान कारण। इस दृश्यमान जगत् का उपादान तथा निमित्त कारण दोनों ब्रह्म हैं। वेदान्त में मकड़ी के उदाहरण के माध्यम से निर्विकारी ब्रह्म को जगत् का उपादान तथा निमित्त कारण सिद्ध किया गया है
"शक्तिद्वयवदज्ञानोपहितं चैतन्यं स्वप्रधानतया निमित्तं स्वोपाधिप्रधानतयोपादानं च भवति। यथा- लूता तन्तुकार्य प्रति स्वप्रधानतया निमित्तं स्वशरीरप्रधानतयोपादानं च भवति।
जिस प्रकार अपने शरीर की प्रधानता के कारण मकड़ी अपने तन्तु रूप कार्य के प्रति उपादान कारण होती है तथा अपने चैतन्यांश की प्रधानता से निमित्त कारण, उसी प्रकार अवर्णनीय ब्रह्म अपनी प्रधानता से तो जगत् का निमित्त कारण बनता है तथा माया (अज्ञान) की प्रधानता से इस सृष्टि का उपादान कारण।
किसी वस्तु में अन्य वस्तु की प्रतीति होना विवर्त है, इस प्रकार एक ही वस्तु में दूसरी वस्तु की सत्ता प्रतीत होती है। वस्तुतः वस्तु तो एक ही है, अद्वैत है। विवर्तवाद के सिद्धान्त द्वारा ही वेदान्त अद्वैतवाद की दुरूहता को हल करने में समर्थ हो सका है। वेदान्त दर्शन का अद्वैत प्रतिपादक प्रसिद्ध सिद्धान्त है- “सर्व खल्विदं ब्रह्म"। उसके अनुसार सब कुछ ब्रह्म है और ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ नहीं। प्रतिक्षण अपनी सत्ता की अनुभूति कराने वाले जगत् को मिथ्या तथा चर्मचक्षुओं से परे रहने वाले ब्रह्म को एकमात्र सत्य स्वीकार करना बिना विवर्तवाद के सिद्धान्त के संभव नहीं।
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