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________________ जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५८७ परस्पर समन्वय से कार्य की सफलता को समझा जा सकता है। आज अनेक समस्याओं की उत्पत्ति में कलयुग या पंचम आरे को कारण माना जाता है। कभी व्यक्ति के स्वभाव को दोषी ठहराया जाता है, कभी कहा जाता है कि जो होनहार है वह होकर रहता है, कभी अपने पूर्वकृत कर्मों को कोसा जाता है, तो कभी दुराचरण रूप पुरुषार्थ या सदाचरण में अपुरुषार्थ को कारण ठहराया जाता है। किन्तु यह भिन्नभिन्न व्यक्तियों का नय कथन है। सत्यता इनके समन्वय में निहित है। जब पाँचों कारणों का समवाय उपलब्ध होता है तभी उस कार्य का होना संभव होता है। पारिवारिक समस्याओं को सुलझाने में कोई पंच समवाय सिद्धान्त की नय द्रष्टि को लेकर चले तो उसे वास्तव में सफलता प्राप्त हो सकती है। पिता-पुत्र पर क्रोधित होने की बजाय यह सोचे कि पुत्र की उम्र ही ऐसी है इसमें चंचलता संभव है इसलिए व्यर्थ कुपित होना उचित नहीं है। यदि मैं अपने स्वभाव को बदल लूँ तथा पुत्र की समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में समझू तो मेरा कुपित होना आवश्यक नहीं रहेगा। पूर्वकृत कर्मों के कारण भी संभव है पिता को पुत्र न सुहाता हो इसलिए पुत्र को दोषी समझने की बजाय अपने कर्मों को दोषी मानकर शांत रहना उचित है। पिता यदि प्रयत्न या पुरुषार्थ करे तो इस अनावश्यक क्रोध पर नियन्त्रण कर सकता है। इसके लिए आवश्यक है- आत्मबल, दृढ संकल्प और उस पर आचरण। पुरुषार्थ करने पर भी यदि सफलता न मिले तो नियति पर भरोसा कर लेना चाहिए कि जब झगड़ा मिटना होगा तब मिट जाएगा मैं व्यर्थ ही क्यों परेशान रहूँ। इस प्रकार पारिवारिक कलह के निवारण रूप कार्य में भी पंच समवाय की सार्थकता निसृत होती है। कालादि पांचों कारणों को नय दृष्टि से स्वीकार करना उपयुक्त है। हरिभद्रसूरि विरचित उपदेश पद पर टीका करते हुए मुनिचन्द्रसूरि ने बाह्य एवं आभ्यान्तर सभी कार्यों में काल आदि के कलाप अर्थात् समवाय को कारण स्वीकार किया है- "ततः सर्वस्मिन्नेव कुम्भाम्भोरुहप्रासादंकुरादौ नारकतिर्यग्नरामरभवभाविनि च निःश्रेयसाभ्युदयोपतापहर्षादौ वा बाह्याध्यात्मिकभेदभिन्ने कार्ये न पुनः क्वचिदेव एण कालादिकलाप: कारणसमुदायरूपः बुधैः सम्प्रतिप्रवृत्त- दुःषमातमस्विनीबललब्धोदयकुबोधतमः पूरापोहदिवाकराकारश्रीसिद्धसेन- दिवाकरप्रभृतिभिः पूर्वसूरिभिः निर्दिष्टो निरूपितो जनकत्वेन जन्महेतुतया यतो वर्तते। अर्थात् घट, कमल, प्रासाद, अंकुर आदि बाह्य कार्य हों अथवा नारक, तिर्यक, मनुष्य या देव भव में होने वाले कार्य हों अथवा निःश्रेयस, अभ्युदय, संताप, हर्ष आदि आभ्यन्तर कार्य हों, सबमें कालादि का कलाप कारण समुदाय के रूप में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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