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________________ ५८६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण सम्यक्त्व प्राप्त कर लेना या यावत् मोक्ष जाने से अन्तर्मुहूर्त पहले सम्यक्त्व प्राप्त करना नियति समवाय है। प्रगाढ मिथ्यात्वादि के उदय से शुक्लपाक्षिक बन जाने पर भी सम्यक्त्वादि प्राप्त न होना पूर्व कर्म का समवाय है तथा चारित्र एवं मोक्ष प्रायोग्य गति, जाति, संहनन आदि योग्यताएँ प्राप्त होना भी पूर्व कर्म में समझा जाता है। संयम में पराक्रम कर मोक्ष प्राप्त करना पुरुषार्थ समवाय है। इस प्रकार पाँचों समवायों के समन्वित होने से ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।" व्यवहारिक जीवन में पंच समवाय मुक्ति की प्राप्ति में ही नहीं व्यावहारिक जीवन में भी पंच समवाय का प्रयोग अनुभव में आता है। यह ध्यातव्य है कि पारिवारिक समन्वय, सामाजिक सुदृढता, पर्यावरण सुरक्षा आदि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य की सफलता हेतु काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ इन पाँचों का समन्वय अपेक्षित होता है। इनमें से एक के भी कम होने पर कार्य में सफलता संदिग्ध हो जाती है। व्यक्तिगत जीवन के विकास में भी इन पाँचों कारणों की अपेक्षा रहती है। कोई बालक एम.ए. कक्षा का अध्ययन करना चाहता है तो इसके लिए उसे समुचित आयु की प्राप्ति करना आवश्यक है। चार वर्ष का बालक चाहे तो वह एम.ए. की परीक्षा नहीं दे सकता। एम.ए. का पाठ्यक्रम दो वर्षों का होता है। अत: उस अध्ययन के लिए काल कारण की अपेक्षा रहती है। कोई एक क्षण में एम.ए. पाठ्यक्रम का लाख प्रयत्न करने पर भी अध्ययन नहीं कर सकता। इसी प्रकार स्वभाव की कारणता भी वहाँ परिलक्षित होती है। जिस बालक में अध्ययन का स्वभाव होगा अर्थात् अध्ययन के प्रति रुचि होगी। वह ही एम.ए. का अध्ययन करने की योग्यता अर्जित कर सकेगा। अन्यथा वह बी.ए. तक भी नहीं पहँच सकेगा। नियति की कारणता भी परोक्ष रूप से स्वीकार करनी होगी। क्योंकि अध्ययन की अवधि में या उसके पूर्व कोई ऐसी दुर्घटना हो जाए कि वह अध्ययन के लिए जीवित ही न रहे अथवा अन्य कोई बाधा उत्पन्न हो जाए जिससे उसका अध्ययन पूर्ण न हो सके। इसलिए यह मानना होगा कि भवितव्यता या नियति भी कार्य की सिद्धि में एक कारण है। पूर्वकृत कर्मों के अनुसार फल की प्राप्ति होती है। इसलिए पूर्वकृत कर्म को भी इसमें कारण मानना होगा। यदि प्रगाढ ज्ञानावरण कर्म का उदय हुआ तो प्रयत्न करने पर भी वह कुछ सीख नहीं सकेगा तथा ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम उत्तम हुआ तो वह अल्प प्रयत्न से भी विद्याध्ययन करने में सफल हो जाएगा। उपर्युक्त चारों कारणों के होने पर भी यदि छात्र का पुरुषार्थ न हो तो वह सफलता अर्जित नहीं कर सकेगा। वह दत्तचित्त होकर अध्ययन में लगेगा तभी उसे सफलता प्राप्त हो सकेगी। इस प्रकार व्यावहारिक जीवन में अध्ययन का यह उदाहरण पंच समवाय के सिद्धान्त की पुष्टि करता है इसी प्रकार अन्य क्षेत्रों में भी इन पाँचों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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