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जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५८५ रहे थे। शालिभद्र की आत्मा ने अतीत में सम्यक्त्व प्राप्त किया था, जिससे मुक्ति उनकी नियति बन चुकी थी और उनमें मुक्ति की अदम्य लालसा भी थी एवं तदनुरूप उन्होंने उद्यम भी किया। स्वभाव, काल, नियति व पुरुषार्थ इन चारों समवायों के बावजूद वे मुक्त नहीं हुए, क्योंकि कर्मों का क्षय नहीं हुआ था। इस प्रकार कर्मों का विलय मुक्ति में सहायक होता है।
कर्म, कालादि के योग से शुद्ध स्वरूप का कुछ अंश प्रकट होता है, ऐसा जीव मुक्ति में पुरुषार्थ कर सकता है। संयम, तप, धैर्य, सहिष्णुता आदि में जीव का पुरुषार्थ ही जीव को मोक्षगामी बनाता है, जैसा कि गजसुकुमार आदि मुक्त जीवों के जीवन में हुआ। गजसुकुमार के साथ पाँचों समवाय का योग बना कि वे श्मशान में समाधिलीन होकर भी मुक्ति को प्राप्त हो गए।
- इस प्रकार मुक्ति-प्राप्ति में भी पाँच कारणों का समवाय अपेक्षित है। मल्लधारी राजशेखरसूरि ने भी 'षड्दर्शन समुच्चय' में पाँचों समवायों से मुक्ति स्वीकार की है
कालस्वभावनियति - चेतनेतरकर्मणाम्।
भवितव्यता पाके, मुक्तिर्भवति नान्यथा।।" काल, स्वभाव, नियति, पुरुषकार-उद्यम और पूर्वकृत शुभाशुभ कर्म- इन पाँच कारणों का योग मिलने पर ही जीव की मुक्ति होती है, इन पाँचों कारणों के बिना मुक्ति नहीं मिलती।
पंच समवाय मुक्ति में घटित होता है- इस संबंध में आचार्य महाप्रज्ञ और श्रुतधर श्री प्रकाशमुनि जी म.सा. से लिखित विचार प्राप्त हुए जो इस प्रकार हैं
आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं- “पंच समवाय को मुक्ति मार्ग में भी घटित किया जा सकता है। काल लब्धि को हम अस्वीकार नहीं करेंगे। शुक्लपक्ष का भी एक निश्चित काल है। जीव में मुक्त होने का स्वभाव है। मुक्ति होना एक नियम भी है। मुक्त होने के लिए पुरुषार्थ नितांत अपेक्षित है। मुक्त होने के साथ कर्म का विलय भी जुड़ा हुआ है। इसलिए मुक्ति मार्ग के चिन्तन में समवाय का चिन्तन अप्रासंगिक नहीं है।"
श्रुतधर श्री प्रकाशमुनि जी म.सा. का मन्तव्य है- "जीव के मुक्त होने में भी पाँचों समवायों का समन्वय होना आवश्यक समझा जाता है। जीव का भव्य होना स्वभाव समवाय है। शुक्लपाक्षिक बनना काल समवाय है। शुक्लपाक्षिक बनते ही
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