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५८४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण मुक्ति प्राप्ति में पंच समवाय की कारणता
___ जीवों के मुक्त होने में कालादि कारण पंचक का समन्वय या समवाय आवश्यक है। मुक्ति-प्राप्ति में प्रथम आधार जीव का भव्य होना है, जिसे स्वभाव कारण कहा जा सकता है। मोक्ष रूप फल में चरमावर्त काल, चरमावर्तकाल में भी कोई विशिष्ट उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल, दुषम-सुषमादि आरा, शुक्लपाक्षिक होना काल की निमित्तता को प्रकट करते हैं। मुक्ति योग्य काल का संयोग अभव्य जीवों को भी मिलता है फिर भी वे न तो मुक्त होते हैं, न उनमें मुक्ति की संभावना नियत होती है और न उनमें मुक्ति मार्ग के अनुरूप पुरुषार्थ-पराक्रम होता है क्योंकि निरंजन,निराकार, निर्लेप बनना यह अभव्य जीव का स्वभाव ही नहीं है इसलिए काल के योग से उनमें शिव सुख का प्रादुर्भाव नहीं होता है।
मुक्ति की ओर गमन यह स्वभाव भव्य जीवों में ही पाया जाता है। इन भवी जीवों को काल का योग भी मिलता है फिर भी देखा जाता है कि सभी भव्य जीव मोक्ष नहीं जाते। इससे स्पष्ट है कि स्वभाव व काल दो का समवाय होने मात्र से जीव मोक्ष नहीं जा सकता। यदि इन दो समवाय से ही मुक्ति की योग्यता जीव में प्रकट होती तो संसार के समस्त भवी जीव मोक्ष में चले जाते किन्तु ऐसा नहीं होता है क्योंकि सभी भवी जीवों की नियति मोक्ष नहीं है। सम्यक्त्व की प्राप्ति के बिना मुक्ति की नियति निर्मित नहीं होती है। सभी भवी जीवों को सम्यक्त्व की प्राप्ति हो यह जरूरी नहीं है। इस प्रकार शुक्ल पाक्षिक बनते ही सम्यक्त्व प्राप्त कर लेना या यावत् मोक्ष जाने से अन्तर्मुहूर्त पहले सम्यक्त्व प्राप्त करना नियति की कारणता को उजागर करता है।
शुक्लपाक्षिक बन जाने पर भी प्रगाढ मिथ्यात्वादि के उदय से सम्यक्त्वादि प्राप्त न होना पूर्व कर्म का परिणाम है। इसी प्रकार चारित्र एवं मोक्ष प्रायोग्य मुनष्य गति, पंचेन्द्रिय जाति, उत्तम संहनन आदि योग्यताएँ प्राप्त होना भी पूर्वकृत कर्म का परिणाम है। अजरता-अमरता की प्राप्ति की योग्यता रखने वाले भव्य जीव को तदनुरूप काल का सुयोग भी है और सम्यक्त्व के प्रताप से उसकी मुक्ति भी निचित हो चुकी है। इन तीनों समवाय की उपस्थिति के बावजूद मुक्ति होना आवश्यक नहीं है, क्योंकि ये तीनों समवाय मगध सम्राट श्रेणिक को भी उपलब्ध थे, फिर भी वे मुक्त नहीं हुए, कारण कि उनके पूर्वकृत कर्मों का बंधन प्रगाढ था अर्थात् पूर्वकृत कर्म का योग उनकी मुक्ति में बाधक था।
गोभद्र श्रेष्ठी के पुत्र शालिभद्र भवी आत्मा थी। वे जिस काल में उत्पन्न हुए उस काल में स्वयं तीर्थकर भगवान मौजूद थे और अनेक जीव सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो
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