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जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५८३ हो गए और जिनकी नियति पैदा होने की नहीं थी वे बिना अंकुरित हुए ही रह गए। सभी दानों में नये गेहूँ पैदा करने की योग्यता होते हुए भी कुछ दाने ही खेत में डाले जाते हैं। अधिक दाने तो आटा आदि बनाकर लोगों के उपभोग में आ जाते हैं। यह पूर्वकर्म समवाय है। इस प्रकार अनेक प्रकार के मध्यवर्ती कारणों को इन्हीं पाँचों में समाविष्ट किया जा सकता है। पं. दलसुख मालवणिया
पं. दलसुख मालवणिया ने गणधरवाद की प्रस्तावना में कालादि कारणों के समवाय को स्वीकार करते हुए कहा है- “कार्य की उत्पत्ति केवल एक ही कारण पर आश्रित नहीं, परन्तु उसका आधार कारण सामग्री है। इस सिद्धान्त के बल पर जैनाचार्यों ने कहा कि केवल कर्म ही कारण नहीं है, कालादि भी सहकारी कारण हैं। इस प्रकार सामग्रीवाद के आधार पर कर्म और कालादि का समन्वय हुआ। इससे ज्ञात होता है कि जैन भी कर्म को एकमात्र कारण नहीं मानते, परन्तु गौण-मुख्य भाव की अपेक्षा से कालादि सभी कारणों को मानते हैं। डॉ. सागरमल जैन
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी के पूर्व निदेशक डॉ. सागरमल जैन से जोधपुर में हुई चर्चा में उनका मत था- “ऐसा लगता है कि सन्मति तर्क में उस समय चल रहे सिद्धान्तों के समन्वय के अन्तर्गत पंच समवाय भी एक अन्यतम सिद्धान्त है। पंच समवाय को कारणों का समन्वयकारी सूत्र कहा जा सकता है। डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल
दिगम्बर परम्परा के विद्वान् डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कहते हैं- “जब कार्य होता है, तब पाँचों ही समवाय नियम से होते ही हैं और उसमें नियत धर्म-अनियत धर्म, स्वभाव धर्म-अस्वभाव धर्म, काल धर्म-अकाल धर्म एवं पुरुषकार धर्म-दैव धर्म ये आठ नयों के विषयभूत आत्मा के आठ धर्मों का योगदान भी समान रूप से होता ही है। तात्पर्य यह है कि आत्मा की सिद्धि के सम्पूर्ण साधन आत्मा में ही विद्यमान हैं, उसे अपनी सिद्धि के लिए यहाँ-वहाँ झांकने की या भटकने की आवश्यकता नहीं है।८७
इस प्रकार आधुनिक काल में पंच समवाय का सिद्धान्त सुप्रतिष्ठित है। यहाँ नमूने के रूप में कुछ आचार्यों,संतों एवं विद्वानों के विचार ही संकलित किए गए हैं। अन्य विद्वान् भी इन विचारों से असहमत दिखाई नहीं दिए हैं।
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