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५८२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण सीमित नहीं करता तो मनुष्य भाग्य के हाथ का खिलौना होता। उसकी स्वतंत्रता समाप्त हो जाती। फिर ईश्वर की अधीनता और कर्म की अधीनता में कोई अन्तर नहीं होता। किन्तु उदीरणा और संक्रमण के सिद्धान्त ने मनुष्य को भाग्य के एकाधिकार से मुक्त कर स्वतंत्रता के दीवट पर पुरुषार्थ के प्रदीप को प्रज्वलित कर दिया।"
आचार्य महाप्रज्ञ ने पाँच समवाय को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव नामक चार दृष्टियों का विकास स्वीकार किया है, यथा- "द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव- ये चार दृष्टियाँ जैन दर्शन में ही उपलब्ध हैं, अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं है। उत्तरकाल में जैनाचार्यों ने इनका विकास किया। चार आदेशों के स्थान पर पाँच समवायों का विकास हुआ है- स्वभाव, काल, नियति, पुरुषार्थ, भाग्य या कर्म। ये पाँच समवाय चार दृष्टियों का विकास है। इन पाँच समवायों को समाहित किया जाये तो ये सारे चार दृष्टियों में समाहित हो जाते हैं। अगर विभक्त किया जाए तो ये पाँच उत्तरवर्ती दृष्टियाँ और चार पूर्ववर्ती दृष्टियाँ- नौ नियम प्रस्तुत होते हैं। आचार्य श्री विजयरत्नसुन्दरसूरि जी महाराज - अपने विशाल साहित्य में आचार्य विजयरत्नसुन्दरसूरि जी महाराज ने पतिपत्नी, पिता-पुत्र, सास-बहू आदि के बीच में उत्पन्न होने वाली समस्याओं के निराकरण में पंच समवाय के सिद्धान्त को आधार बनाया है। उन्होंने विभिन्न घटनाओं के मर्म में जाकर यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया है कि सभी समस्याओं का हल पंच समवाय के माध्यम से संभव है। श्रुतधर श्री प्रकाशमुनि जी म.सा.
पं. समर्थमल जी म.सा. के शिष्यरत्न श्रुतधर श्री प्रकाशमुनि जी महाराज से पंच समवाय के विभिन्न बिन्दुओं पर जोधपुर में चर्चा हुई, कतिपय जिज्ञासाओं का उत्तर पत्र के माध्यम से प्राप्त हुआ। पंच समवाय के संबंध में उनका मन्तव्य इस प्रकार है- "कार्य सिद्धि के जितने भी कारण हैं, उनका पाँच समवायों में समावेश हो जाता है। जैसे गेहूँ में गेहूँ पैदा करने की क्षमता है तथा जौ, बाजरा, ज्वार,मक्का आदि पैदा करने की नहीं। यह स्वभाव समवाय है। गेहूँ में गेहूँ पैदा करने का सामर्थ्य होते हुए भी किसान का पुरुषार्थ, मिट्टी, पानी एवं खाद का संयोग आवश्यक है। गेहूँ समय के परिपाक से साथ ही पकता है। यह पुरुषकार एवं काल समवाय है। मिट्टी आदि अन्य कारणों का पुरुषकार कारण में समावेश कर दिया गया है। हजारों लाखों टनों में कुछ दाने ऐसे भी होते हैं जो इन सब कारणों के प्राप्त होने पर भी अंकुरित नहीं होते हैं। इसे नियति समवाय कहा गया है। जिनकी नियति उगने की थी वे विकास को प्राप्त
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