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________________ ५८८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण सिद्धसेन दिवाकर आदि विद्वत्मनीषि पूर्वाचार्यों ने प्रतिपादित किया है। उन्होंने काल आदि कलाप को जनक या हेतु स्वीकार किया है। इस प्रकार वर्तमान समय में पारिवारिक समन्वयशीलता, सामाजिकसुदृढ़ता, पर्यावरण- सुरक्षा, राष्ट्रीयता, साम्प्रदायिक सद्भाव आदि समस्याओं के समाधान में काल का सम्यक् बोध, स्वभाव की पहचान, विवेकपूर्ण पुरुषार्थ, नियम या नियति की मीमांसा, भाग्य के तारतम्य की स्वीकृति- इन पाँचों का समन्वय किया जा सकता है। पंच कारण समवाय में गौण प्रधान भाव यद्यपि जैनाचार्यों ने काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म, पुरुषार्थ को पंच कारण समवाय में समान रूप से स्थान दिया है। किन्तु इनमें कभी काल की प्रधानता हो सकती है तथा अन्य कारण गौण रूप में सहयोगी हो सकते हैं। इसी प्रकार कहीं स्वभाव की, कहीं नियति की, कहीं पूर्वकृत कर्म की और कहीं पुरुषार्थ की प्रधानता तथा शेष अन्य कारणों की गौण रूप में सहयोगिता संभव है। विवक्षा से भी इनमें गौण प्रधान भाव कहा जा सकता है। कहीं ये एक-दूसरे से एक साथ इस प्रकार मिले रहते हैं कि उनकी गौणता या प्रधानता पर ध्यान ही नहीं जाता। जब काल को कारण कहा जाता है तब मात्र काल कारण नहीं होता उसके साथ अन्य कारणों का योग भी स्वतः बन जाता है। ज्योतिर्विद् जब किसी कार्य का मुहूर्त निकालता है तो उसमें काल की प्रधानता ज्ञात होती है किन्तु व्यक्ति का पुरुषार्थ, पूर्वकृत कर्म-फल का उदय, व्यक्ति का स्वभाव तथा कार्य की भवितव्यता का भी योग रहता है। यदि भवितव्यता न हो तो वह कार्य सम्पन्न नहीं होता है । उदाहरण के लिए राजा दशरथ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र रामचन्द्र का राज्याभिषेक करने के लिए ज्योतिषी से मुहूर्त निकलवाया। अन्य सब प्रयास भी हुए किन्तु भवितव्यता का योग नहीं था तो उन्हें वनवास जाना पड़ा। यहाँ भवितव्यता की प्रधानता स्वीकार की जा सकती है। खेतों में काल के कारण फसल पक गई हो, अपने बीज के स्वभाव के अनुरूप फसल (गेहूँ, बाजरा, ज्वार आदि ) पकी हो, किसान के पूर्वकृत कर्मों के उदय से उसे फसल का लाभ भी मिलने वाला हो तथा नियति भी अनुकूल हो किन्तु किसान यदि फसल को काटने का समय पर पुरुषार्थ न करे तो उसे फसल पकने का लाभ नहीं मिल सकता। इस उदाहरण में पुरुषार्थ की प्रधानता विदित होती है। फसल के पकने के पूर्व भी हल जोतने, बीज डालने, जल से सींचने, निराई करने, पशुओं से रक्षा करने आदि में भी किसान का पुरुषार्थ रहता है। किन्तु किसान का भाग्य काम न करे तो किसी भी कारण से फसल चौपट हो सकती है। ऋतुओं के संचालन, वस्तुओं के परिणमन आदि में काल की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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