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जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५७९ इस प्रकार पाँच समवायों में गौण-प्रधान भाव संभव है, किन्तु किसी एक की कारणता से ही कोई कार्य नहीं होता है। सबके सहयोग से कार्य सम्पन्न होता है। आचार्य विजयलक्ष्मी सूरीश्वर जी महाराज
_ 'उपदेश प्रासाद' नामक कृति में आचार्य श्री विजयलक्ष्मीसूरीश्वर जी महाराज ने कालवाद आदि पाँचों में समन्वय स्थापित करते हुए कहा है
कालादिपंचभिः कार्यमन्योऽन्यं सव्यपेक्षकैः।
संपृक्ता यांति सम्यक्त्वमिमे व्यस्ताः कुदर्शनम्।।
अर्थात् काल इत्यादि पाँचों कारणों की अपेक्षा होने पर कार्य होता है। इन पाँचों के समवाय को मानने वाला सम्यक्त्वी कहलाता है और इनकी अलग-अलग कारणता को स्वीकार करने वाला मिथ्यात्वी कहलाता है। मुनिश्री न्यायविजय जी
'जैन दर्शन' नामक कृति में मुनि न्यायविजय जी ने पंच समवाय के संदर्भ में लिखा है- “ये पाँचों ही कारण अपने-अपने स्थान पर उपयोगी हैं, एक कारण को सर्वथा प्राधान्य देकर दूसरे को उड़ाया नहीं जाता अथवा सर्वथा गौण स्थान पर उसे हम नहीं रख सकते। यदि कालवादी काल को ही प्राधान्य देकर दूसरों का यथायोग्य मूल्यांकन न करे तो उसकी भ्रांति है। कानजी स्वामी
'नयप्रज्ञापन' नामक ग्रन्थ में कानजी स्वामी (२०वीं शती) ने नियति, स्वभाव, काल, पुरुषार्थ और दैव इन पाँच नयों का निरूपण किया है। अमृतचन्द्राचार्य की प्रवचनसार की टीका के वाक्यों को आधार बनाकर आधुनिक युग के व्याख्याकार कानजी स्वामी ने इन नयों का निरूपण किया है। उनके प्रतिपादन का सारांश यहाँ प्रस्तुत है- जब आत्मा को नियति नय से देखते हैं तब आत्मा अपना चैतन्य स्वभाव होने से एक रूप भासित होती है। कानजी स्वामी कहते हैं- “यहाँ द्रव्य के त्रिकाली स्वभाव को ही नियत कहा है।"७ चैतन्यपना आत्मा का नित्य स्वभाव है। आत्मा का सहज निरपेक्ष शुद्ध स्वभाव भी नियत है। नियत नय आत्मा को सदा ज्ञायक स्वरूप ही देखता है।
नियति का सम्यक् स्वरूप प्रतिपादित करते हुए स्वामी जी कहते हैं- “पाँच समवाय में जो भवितव्य अथवा नियति आती है वह सम्यक् नियतिवाद है, उसके
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