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________________ ५८० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण साथ दूसरे चार समवाय भी आ जाते हैं। जो होता है वह सब नियत ही है, परन्तु इस नियत के निर्णय में ज्ञातास्वभाव का पुरुषार्थ भी है, इसलिए पुरुषार्थ आ गया। उस समय जो निर्मल स्वपर्याय प्रकट हुई वह काल है। स्वभाव में जो पर्याय थी वह प्रकट हुई उतने कर्मों में अंशों का अभाव हुआ, अतः पूर्वकृत कर्म भी आ गया। स्वभावनय से देखने पर जो आत्मा का स्वभाव है उसमें किसी के संस्कार नहीं पड़ते। संस्कार क्षणिक पर्याय में काम कर सकते हैं, ध्रुवस्वभाव में नहीं। जैसेभव्य जीव का स्वभाव सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्राप्त करने की शक्ति रूप है। काल की कारणता स्वीकार करते हुए वे कहते हैं- आत्मा की मुक्ति जिस समय होनी है, उसी समय होगी- ऐसा कालनय से आत्मा का एक धर्म है। जिस काल में मुक्ति होती है, उस काल में वह पुरुषार्थ पूर्वक ही होती है, परन्तु पुरुषार्थ से कथन न करके 'स्वकाल से मुक्ति हुई है' - ऐसा कालनय की अपेक्षा से कहा जाता है। पुरुषार्थ की मुक्ति में कारणता स्पष्ट करते हुए कानजी स्वामी कहते हैं"आत्मा की सिद्धि यत्न साध्य है। जिस प्रकार कोई मनुष्य नीबू का बीज बोवे तो नीबू का वृक्ष होता है, उसी प्रकार चैतन्यस्वभाव के सम्मुख होकर उसकी रुचि और एकाग्रता से आत्मा की सिद्धि प्राप्त होती है- यह पुरुषकार नय का कथन है।"८० पुरुषार्थ धर्म हटाकर अकेले नियति नय से आत्मा की मुक्ति माने वह मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि उसने वस्तुत: आत्मा को स्वीकार ही नहीं किया। अन्तर (भीतर) के प्रयत्न से मुक्ति होती है- ऐसा आत्मा का धर्म है तथा यत्नसाध्य धर्म से आत्मा को लक्ष्य में लेने वाला पुरुषकार नय है।" दैव नय की दृष्टि से वे कहते हैं- "जब जीव अपने स्वभाव-सन्मुखता का पुरुषार्थ करता है, तब इसके साथ ही कर्मों का नाश हो जाता है। कमों का नाश करने के लिए पृथक् से यत्न नहीं करना पड़ता। इस अपेक्षा से यह कहा है कि आत्मा की सिद्धि अयत्नसाध्य है- ऐसा दैवनय का कथन है।८१ समन्वयात्मक दृष्टि से इनका यह कथन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है- "वस्तु में समस्त धर्म एक साथ है, परन्तु छद्मस्थ के श्रुतज्ञान में नय होते हैं और उन नयों की अपेक्षा मुख्यता गौणता होती है। एक नय दूसरे नयों के विषयभूत धर्मों को गौण करता है, परन्तु उनका सर्वथा निषेध नहीं करता। यदि वह दूसरे धर्म का सर्वथा निषेध करे तो अनेकांतमय वस्तु स्वरूप ही सिद्ध न हो अर्थात् वस्तु का प्रमाण ज्ञान ही न होऐसी स्थिति में नय भी नहीं हो सकते, क्योंकि नय तो श्रुतज्ञान प्रमाण के अंश को कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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