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________________ ५७८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण जाली उवयाली अभै धन्नो सुनक्षत्र मेघ, शालिभद्र आदि करी करणी करारी है। तप जप व्रत सो तो कीनो ज्यां उद्याम अति, मुक्ति में न गया मुनि सुर अवतारी है। तिण को कारण शुभ कर्म रह्या शेषवती, निर्जरा न भई सन जोग मिल्या चारी है। कहत तिलोकरिख पंचसमवाय बिना, मोक्ष नहीं जाय कोई निश्चै उरधारी है।। शतावधानी श्री रतनचन्द्र जी महाराज 'कारण संवाद नामक कृति में बीसवीं शती के शतावधानी श्री रत्नचन्द्र जी महाराज ने काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ- इन पाँचों की सापेक्षता का प्रतिपादन किया है। उन्होंने नाटक के रूप में इस कृति की रचना रोचक रूप में की है। कालवादी, स्वभाववादी, नियतिवादी, पूर्वकृत कर्मवादी, पुरुषार्थवादी, राजा, मंत्री एवं पंडित आदि पात्रों के माध्यम से पंच समवाय का निरूपण अत्यन्त रोचक एवं आकर्षक है। राजा पात्र के माध्यम से शतावधानी श्री रत्नचन्द्र जी महाराज कहते हैं"वादियों और सभासदों। काल, स्वभाव, पूर्वकर्म, पुरुषार्थ और नियति इन पाँचों का स्वतंत्र कारणता के लिए जो अभिमानपूर्ण वक्तव्य है, वह मिथ्या है।.... इनकी स्वतंत्र कारणता सिद्ध नहीं होती, किन्तु सापेक्ष कारणता सिद्ध होती है। पाँचों वादी साथ मिलकर सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जीवन-मरण आदि में कारणभूत हो सकते हैं अर्थात् पाँचों का समवाय (समुदाय) कारण माना जा सकता है। पाँचों की समान कारणता होने पर भी गौण या मुख्य भाव तो है ही। ऋतु के परिवर्तन आदि कई कार्यों में काल की प्रधान कारणता और दूसरों की गौणता है। स्वभाव की प्राय: सब जगह समान कारणता है। जीवन शक्तियाँ, शरीर, अंगोपांग, इन्द्रियाँ, प्राण आदि सम्पत्ति में पूर्व कर्म की प्रधानता है, पुरुषार्थ प्रभृति की गौणता है। शक्तियों का विकास करने में, विद्या, हुनर, कला, विज्ञान, शोध आदि में पुरुषार्थ की प्रधानता और पूर्व कर्म आदि की गौणता है। अचानक विघ्नों में नियति की प्रधानता और अन्य की गौणता है। इस प्रकार प्रत्येक वादी को अपने-अपने विषय में प्रधानता और अन्य स्थल पर अपनी गौणता स्वीकार करके गर्व और अधिक वाद छोड़ देना चाहिए तथा परस्पर की सामर्थ्य स्वीकार करनी चाहिए।"७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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