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जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५७७ भवितव्यतावादी, पूर्वकृत कर्मवादी एवं पुरुषार्थवादी की मान्यताओं का विशद निरूपण करने के साथ सबमें समन्वय स्थापित किया है। उन्होंने मुक्ति-प्राप्ति के लिए पंच समवाय को आवश्यक स्वीकार किया है। वे कहते हैं
'पंच समवाय मिल्या होत है कारण सब,
एक समवाय मिल्या कारण न होइये। पंच समवाय माने सो ही समदृष्टि जीव,
अनुभो लगाय दूर दृष्टि कर जोइये।।' मुक्ति में पंच समवाय किस प्रकार आवश्यक है, उसे श्री त्रिलोकऋषिजी ने पद्य में इस प्रकार निबद्ध किया है
पूछत है शिष्य कर जोड़ी गुरुदेव सेती,
कैसी रीति पंच समवाय मोक्ष लहिए। सुण वत्स गुरु कहे काल लब्धि बिना जीव,
पावे नहीं शिवपद ताते समे गहिए।। विनै कर कहे शिष्य काल भवि अभवि के,
अभवी न पावे शिव कारणता कहिए। गुरु वदे काल है ये नहीं है स्वभावता में,
कहत तिलोक कैसे मुगति में लहिए।। भवी को स्वभाव मोक्ष जावण को है तो फिर, सभी भवीजीव क्यों न जावे निरवाण है। गुरु कहे नियति जे निश्चे समकित गुण, जागे जन मोक्ष बिन जाग्या होत हाण है।।
समकितवंत राजा माधव श्रेणिक आदि, मुक्ति में न गया सो तो कौनसी बिन्नाण है।
कहत तिलोक घणा पूरब कर्मतथा, उद्यम न कियो होसे प्रगट्यो न भाण हैं।।
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