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जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५७५ पक्ष को युक्तियुक्त रूप में प्रस्तुत किया है एवं तदनन्तर पाँचों की अपेक्षा सिद्ध करते हुए कहा है
ओ पाँचे समुदाय मिल्या बिण, कोई काज न सीझे।
अंगुलीयोगे करतणी परे, जे बुझे तो रीझे रे।।
अर्थात् कालादि पाँच कारणों के समुदाय के मिले बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता। जिस प्रकार अंगुलियो का योग होने पर ही हाथ से कार्य होता है उसी प्रकार पाँचों के समुदाय की अपेक्षा है। जो इस तथ्य को जान लेते हैं वे प्रसन्न रहते हैं। प्राचीन दिगम्बराचार्यों का योगदान
अमृतचन्द्राचार्य (१०वीं शती) ने प्रवचनसार की टीका के अन्त में ४७ नयों की चर्चा की है, जिसमें उन्होंने नियतिनय, स्वभावनय, कालनय, पुरुषकारनय और दैवनय का भी निरूपण किया है। नियति नय का स्वरूप निरूपित करते हुए वे कहते हैं- 'नियतिनटोन नियमितौष्ण्यवह्निवन्नियतस्वभावभासि।५ अर्थात् जिस प्रकार वह्नि में उष्णता नियमित रूप से होने के कारण नियति है उसी प्रकार आत्मा की स्वप्रकाशकता नियत है। स्वभावनय का स्वरूप निरूपण करते हुए उन्होंने कहा कि पर्यायगत अनादि संस्कार को आत्मा का ज्ञान-दर्शन-चारित्र का स्वभाव निरर्थक करने वाला है जैसे कि काँटे की तीक्ष्णता का स्वभाव।६६ स्वभाव नय से आत्मा का जो स्वभाव है उसमें किसी के संस्कार नहीं पड़ते। संस्कार क्षणिक पर्याय में काम कर सकते हैं, ध्रुव स्वभाव में नहीं। कालनय की चर्चा में वे कहते हैं कि आत्मा को काल का परिपाक होने पर ही सिद्धि प्राप्त होती है जैसे कोई आम ग्रीष्मकाल में परिपक्व होता है।६७
पुरुषकारनय के संदर्भ में उनका कथन हैं- 'पुरुषकारनयेन पुरुषकारोपलब्धमधुकुक्कुटीक पुरुषकारवादियत्नसाध्यसिद्धिः। ८ अर्थात् पुरुष को पुरुषार्थ द्वारा नीबू का वृक्ष या मधुछत्ता प्राप्त होता है, ऐसे पुरुषार्थवादी के समान आत्मद्रव्य यत्नसाध्य सिद्धिवाला है। दैवनय की सिद्धि में कहते हैं कि दैवनय से जिसे पुरुषार्थ द्वारा नीबू का वृक्ष या मधुछत्ता प्राप्त हुआ है और उसमें से जिसे बिना प्रयत्न के ही अचानक माणिक्य प्राप्त हो गया है- ऐसे दैववादी के समान आत्मा अयत्नसाध्य सिद्धिवाला है। इस प्रकार नयों के माध्यम से कारण पंचक का विवेचन अमृतचन्द्राचार्य ने किया है।
पद्मपुराण में काल, स्वभाव आदि की चर्चा प्राप्त होती है। वहाँ पर काल, कर्म, ईश्वर, दैव, स्वभाव, पुरुष, क्रिया और नियति शब्दों का प्रयोग हुआ है।
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