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५७४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
५. मल्लधारी राजशेखर सूरि- राजशेखरसूरि (१२-१३वीं शती) षड्दर्शनसमुच्चय में मुक्ति-प्राप्ति के प्रसंग में पंच समवाय को उद्धृत करते हुए लिखते हैं
कालस्वभावनियति - चेतनेतरकर्मणाम्।
भवितव्याता पाके, मुक्तिर्भवति नान्यथा।।६२ काल, स्वभाव, नियति, पुरुषकार-उद्यम और पूर्वकृत शुभाशुभ कर्म- इन पाँच कारणों का योग मिलने पर ही जीव की मुक्ति होती है, इन पाँचों कारणों के बिना मुक्ति नहीं मिलती।
६. उपाध्याय यशोविजय- नयोपदेश में उपाध्याय यशोविजय कहते हैं"सकल नयों की दृष्टि से मूंग पकने के दृष्टान्त द्वारा पाँच कारण सिद्धान्त से सिद्ध हैं तथा सर्वत्र उनकी संगति स्वीकार्य है। सर्व नयों का समावेश होने से उसका यह सम्यक् रूप है। एक कारण विशेष को मानने पर दुर्नय होने से वह मिथ्या रूप होता है, जैसा कि आचार्य सिद्धसेन ने कहा- 'कालो सहाव णियई पव्वकयं पुरिसकारणेगंता, मिच्छत्तं च तेव उ समासओ होंति सम्मत्तमिति।' यह नहीं समझना चाहिए कि भव्यत्व से ही मोक्ष की सिद्धि होती है तथा अन्य कारण समुदाय निष्प्रयोजन है। यहाँ पर भव्यत्व के साथ ही अन्य कारणों का भी प्रवेश हो जाता है। "जं जहा भगवया दिg तं तहा विपरिणमई।" अर्थात् भगवान के द्वारा जो जैसा देखा गया है वह उसी प्रकार परिणमन करता है। इस भगवद्वचन में 'तथा' पद के द्वारा अन्य कारणों का भी संग्रह हो जाता है।
उपाध्याय यशोविजय ने यहाँ पुरुषार्थ आदि कारणों को भी महत्त्व दिया है तथा भगवान की सर्वज्ञता को भी अंगीकार किया है। भगवान् जैसा देखते हैं उसी प्रकार समस्त कारणों का योग बनता है। संभवत: 'जहा' (यथा) एवं 'तहा' (तथा) पद महत्त्वपूर्ण है। भगवान के द्वारा कार्य को जिन कारणों से उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है (जहा) उन्हीं विविध कारणों से वह उत्पन्न होता है, जिसे यहाँ 'तहा' पद के द्वारा स्पष्ट किया गया है।"६३
____७. उपाध्याय विनयविजय- १७वीं शती में उपाध्याय विनयविजय जी ने कालादि पाँच कारणों पर गुजराती भाषा में दोहा एवं ढाल के रूप में स्तवन की रचना की है। उन्होंने सुन्दर रीति से स्याद्वाद एवं नयवाद के माध्यम से कालवाद, स्वभाववाद, भवितव्यतावाद (नियतिवाद), कर्मवाद एवं उद्यमवाद (पुरुषार्थवाद) में समन्वय स्थापित किया है। विनयविजय जी ने पहले कालवाद आदि सभी वादों के
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