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________________ जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५७१ मिलकर एक दूसरे की अपेक्षा से काल आदि को कारण मानने से इस मत को सम्यक् कहा है। ये समस्त काल आदि एक साथ मिलकर ही सब कार्यों के साधक होते हैं, अत: इनके मिलने पर ही समस्त कार्य समीचीनतया सम्पन्न होते हैं। अकेले काल आदि से कोई कार्य नहीं होता है, यथा- मूंग उबालने में आग, पानी, लकड़ी, तपेली आदि मिलने पर ही कारण होते हैं, उसी प्रकार कालादि पाँचों मिलकर कार्य की सिद्धि में कारण बनते हैं।५२ अनेक उत्तमोत्तम लक्षणों से युक्त वैदर्यमणि आदि चाहे कितने ही मूल्यवान हों, परन्तु वे अलग-अलग होने पर रत्नावली (रत्न का हार) नहीं कहे जाते हैं, किन्तु एक सूत्र में गूंथे जाने पर ही कहे जाते हैं। इसी तरह नियतिवाद आदि मत अपनी-अपनी न्याय की रीति से यद्यपि अपने-अपने पक्ष का समर्थन करते हैं तथापि दूसरे के साथ संबंध न रखने के कारण ये सभी मत सम्यक्त्व पद को प्राप्त नहीं करते हैं, किन्तु मिथ्या कहे जाते हैं। पृथक् हुई मणियों को एक सूत्र में गूंथ देने पर वे सभी एकत्व को त्याग देने से रत्नावली यानी रत्न का हार कही जाती है। इसी तरह पूर्वोक्त सभी नयवाद यथायोग्य वक्तव्य में जोड़े हुए एक साथ होने से सम्यक् शब्द को प्राप्त करते हैं। परन्तु उनकी विशेष संज्ञा नहीं होती है। अत: जो अपने पक्ष में कदाग्रह रखते हैं वे सभी नयवाद मिथ्यादृष्टि है, परन्तु वे ही परस्पर संबंध रखने पर सम्यक् हो जाते हैं।५३ ।। आचार्य शीलांक ने एकान्त कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद एवं पूर्वकृत कर्मवाद का निरसन कर सबकी परस्पर सापेक्षता का प्रतिपादन किया है "काल एवैकः सर्वस्यास्य जगतः कारणं तथा स्वभाव एव नियतिरेव पूर्वकृतमेव पुरुषकार एवेत्येवमपरनिरपेक्षतयैकान्तेन कालादीनां कारणत्वेनाश्रयणान्मिथ्यात्वं, तथाहि अस्त्येव जीव इत्वेवमस्तिना सह जीवस्य समानाधिकरण्यात् यद्यादस्ति तत्तंजीव इति प्राप्तम्, अतो निरवधारणपक्षसमाश्रयणादिह सम्यक्त्वमभिहितं तथा कालादीनामपि समुदितानां परस्परसव्यपेक्षाणां कारणत्वेनेहाश्रयणात्सम्यक्त्वमिति। कालवादी एकमात्र काल को ही समस्त जगत का कारण बताता है एवं स्वभाववादी एकमात्र स्वभाव को तथा नियतिवादी केवल नियति को और प्रारब्धवादी केवल पूर्वकृत कर्म को और पुरुषकारवादी एकमात्र पुरुषकार को सबका कारण मानते हैं। ये लोग दूसरे की अपेक्षा न करके एक मात्र काल आदि एक को ही कारण मानते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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