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________________ ५७२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण इसलिए मिथ्यादृष्टि हैं। यदि 'अस्त्येव जीवः' जीव ही है यह माना जाय तो इसका अर्थ यह है कि जो जो है वह सब जीव है, परन्तु ऐसा मानने से अजीव पदार्थ सर्वथा न रहेगा, अतः एकान्त पक्ष को छोड़कर अनेकान्त से ही मत सम्यक् होता है । परस्पर मिलकर एक दूसरे की अपेक्षा से काल आदि को कारण मानने पर ही सम्यक्त्व होता है। काल आदि प्रत्येक पदार्थ पृथक्-पृथक् कारण नहीं है इसलिए इनको पृथक्~ पृथक् कारण मानना मिथ्यात्व है, अतः मिथ्यात्व को छोड़कर इन सबको परस्पर की अपेक्षा से कारण मानना सम्यग्वाद है । " शीलांकाचार्य कहते हैं कि आर्हतमत में कोई सुख-दुःख आदि नियति से होते हैं क्योंकि उन सुख-दुःखों के कारण स्वरूप कर्म का किसी अवसर विशेष में अवश्य उदय होता है। इसलिए वे सुख - दुःख कथंचित् नियतिकृत हैं। सभी सुखदुःख नियतिकृत नहीं होते हैं किन्तु पुरुष के उद्योग, काल, ईश्वर, स्वभाव और कर्म आदि के द्वारा किए हुए होते हैं। अतः आर्हत मत में सुख-दुःख आदि को कथंचित् पुरुषकार साध्य ही माना गया है। कारण यह है कि क्रिया से फल की उत्पत्ति होती है और वह क्रिया पुरुषार्थ के आधीन है । ५६ शीलांकाचार्य नियतिवादी की ओर से दोष का उत्थापन करते हैं- “पुरुषकार समान होने पर भी फल में विचित्रता देखी जाती है। इसलिए नियति ही विचित्रता का कारण है।” उन्होंने नियतिवादियों के आक्षेप का निराकरण करते हुए कहा है- वस्तुतः यह दूषण नहीं है क्योंकि पुरुषकार की विचित्रता भी फल की विचित्रता का कारण होती है तथा समान पुरुषार्थ करने पर भी जो किसी को फल नहीं मिलता है वह उसके अदृष्ट (भाग्य) का फल है। उस अदृष्ट को भी हम लोग (आर्हत) सुख-दुःख आदि का कारण मानते हैं। इसी तरह काल भी कर्ता है। क्योंकि बकुल, चम्पक, अशोक, पुन्नाग, नाग, आम आदि वृक्षों में विशिष्ट काल में ही फूल-फल की उत्पत्ति होती है। सर्वदा नहीं होती है। नियतिवादियों ने जो यह कहा है कि "काल एकरूप है इसलिए उससे विचित्र जगत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती है।" यह भी हम लोगों के लिए दोष नहीं है क्योंकि हम लोग एकमात्र काल को ही कर्ता नहीं मानते हैं, अपितु कर्म को भी कर्ता मानते हैं अतः कर्म की विचित्रता के कारण जगत् की विचित्रता होती है इसलिए हम आर्हतों के मत में कोई दोष नहीं है । ५७ शीलांक कहते हैं कि स्वभाव भी कथंचित् कर्ता है, क्योंकि आत्मा का उपयोग स्वरूप और असंख्य प्रदेशी होना, पुगलों का मूर्त्त होना, धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का गति स्थिति में सहायक होना एवं अमूर्त होना- यह सब स्वभावकृत ही है। "स्वभाव आत्मा से भिन्न है अथवा अभिन्न है" इत्यादि नियतिवादी ने जो स्वभावकर्तृत्व में दोष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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