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५७० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
ज्ञानियों के द्वारा सभी कार्यों में काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुष का कलाप (समवाय) निर्दिष्ट किया गया है। इसलिए इसे कारण रूप में सम्यक्तया जान लेना चाहिए।
इसी गाथा पर टीका करते हुए मुनिचन्द्रसूरि अधिक स्पष्ट करते हुए बताते हैं कि समस्त बाह्य एवं आभ्यन्तर कार्यों में काल आदि का कलाप कारण होता है। घट, कमल, प्रासाद, अंकुर आदि बाह्य कार्य हों अथवा नारक, तिर्यक, मनुष्य या देव भव में होने वाले कार्य हों अथवा निःश्रेयस, अभ्युदय, संताप, हर्ष आदि आभ्यन्तर कार्य हो सबमें कालादि का कलाप कारण समुदाय के रूप में सिद्धसेन दिवाकर आदि विद्वत् मनीषि-पूर्वाचार्यों ने प्रतिपादित किया है। उन्होंने कालादि कलाप को कार्य की उत्पत्ति का जनक या हेतु स्वीकार किया है।४९
३. शीलांकाचार्य- सूत्रकृतांग के टीकाकार आचार्य शीलांक (९-१०वीं शती) ने काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृतकर्म एवं पुरुषार्थ की चर्चा करते हुए इन्हें परस्पर सापेक्ष मानकर इनमें समन्वय स्थापित किया है। आचार्य शीलांक का तार्किक चिन्तन यहाँ प्रस्तुत है
जैन दार्शनिक आत्मवादी होने के साथ क्रियावादी भी है। क्रियावाद में यद्यपि पुरुषार्थ की प्रबलता प्रतीत होती है, किन्तु आचार्य शीलांक काल, स्वभाव आदि का होना भी आवश्यक मानते हैं। उनकी दृष्टि में काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म, पुरुष आदि सब कारणों के होने पर ही कोई क्रियावादी सम्यग्दृष्टि हो सकता है। शीलांकाचार्य के शब्दों में
"तदेवं सर्वानपि कालादीन् कारणत्वेनाभ्युपगच्छन् तथाऽऽत्मपुण्यपापपरलोकादिकं चेच्छन् क्रियावादी सम्यग्दृष्टित्वेना- भ्युपगन्तव्यः। अर्थात् काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृतकर्म पुरुषार्थ- इन समस्त पदार्थों को कारण मानने वाले तथा आत्मा, पुण्य, पाप और परलोक आदि को स्वीकार करने वाले क्रियावादी को सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। अन्यत्र भी कहा है"अतो निरवधारणपक्षसमाश्रयणादिह सम्यक्त्वमभिहितं तथा कालादीनामपि समुदितानां परस्परसव्यपेक्षाणां कारणत्वेनेहाश्रयणात्सम्यक्त्वमिति।"
अवधारण पक्ष को छोड़कर (एकान्तवाद को छोड़कर) निरवधारण पक्ष मानने से (अनेकान्त मानने से) क्रियावादी मत को सम्यक् कहा है तथा परस्पर
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