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________________ जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५६९ अर्थात् पूर्वोक्त दोषों का परिहार सम्भव न होने से न्यायवादियों को यही मानना उचित है कि काल आदि अन्य निरपेक्ष होकर कार्य के उपादान नहीं होते, अपितु अन्य हेतुओं के साथ सामग्रीघटक होकर कार्योत्पादक होते हैं। ___ हरिभद्रसूरि ने धर्मबिन्दु में वरबोधि लाभ के निरूपण के समय भव्यत्व के साथ काल, नियति, कर्म एवं पुरुषार्थ को भी स्थान दिया है। भव्यत्व यहाँ स्वभाव का सूचक है। वे कहते हैं कि सिद्धि में जाने की योग्यता का अनादि पारिणामिक भाव भव्यत्व है जो आत्मा का अपना स्वरूप है। यह भव्यत्व कालादि के भेद से बीजसिद्धि को प्राप्त करने के कारण अनेक रूपता को प्राप्त करता है। कालादि में काल, नियति, कर्म एवं पुरुषार्थ का ग्रहण होता है। इनमें विशिष्ट पुद्गल परावर्त वाला उत्सर्पिणी आदि काल होता है जो तथाभव्यत्व वाले जीव को फलदान के प्रति अभिमुख करता है। जिस प्रकार बसन्त आदि ऋतुएँ वनस्पति विशेष के विकास में सहायक बनती हैं, उसी प्रकार काल भी भव्य जीव के मोक्ष हेतु प्रयत्न में सहायक बनता है। काल के होने पर भी न्यूनाधिकता को दूर करके नियत कार्य को उत्पन्न करने वाली नियति होती है। संक्लेश को कम करने वाला अनेक प्रकार के शुभ भावों एवं ज्ञान का हेतु कुशल कर्म भी मुक्ति में सहायक होता है। समुचित पुण्य संचय से युक्त महान् कल्याण के भावों से सम्पन्न ज्ञानवान प्ररूप्यमाण अर्थ के परिज्ञान में कुशल पुरुषार्थ भी इसी प्रकार मुक्ति में सहायक होता है। पुरुष के स्थान पर पुरुषक्रिया शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम हरिभद्रसूरि ने बीजविंशिका में करके पुरुष की कारणता का सही स्वरूप विद्वानों के समक्ष उजागर किया है। पुरुष की कारणता का औचित्य पंच समवाय में उतना नहीं स्वीकार्य है जितना पुरुषकार या पुरुषार्थ का है। अत: जैन मान्यता के अनुकूल पुरुष के स्थान पर पुरुषक्रिया अर्थात् पुरुषकार शब्द ही अधिक उचित प्रतीत होता है। यथा तहभव्वत्तं जं कालनियइपुवकयपुरिसकिरियाओ। अक्खिवह तहसहावं ता तदधीणं तयंपि भवे।। जिस प्रकार काल, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ का होना आवश्यक है उसी प्रकार स्वभाव का होना आवश्यक है, क्योंकि वे भी उसके अधीन हैं। उपदेश पद में हरिभद्र सूरि ने समवाय के अर्थ में कलाप शब्द का प्रयोग करते हुए कहा है सव्वम्मि चेव कज्जे एस कलावो बुहेहिं निद्दिट्ठो। जणगत्तेण तओ खलु परिभावेयवओ सम्म।।४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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