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जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५६३ न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइयो, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा। एक्कोसयं पच्चणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्म।।
-उत्तराध्ययन सूत्र १३/२३ ज्ञातिजन, संबंधी, मित्र-वर्ग, पुत्र और बांधव उसका (व्यक्ति का) दुःख नहीं बटा सकते। वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है, क्योंकि कर्म कर्ता का ही अनुगमन करता है।
जं जारिसं पुवमकासि कम्म। तहेव आगच्छति संपराए।।
____ -सूत्रकृतांग सूत्र १/५/२/२३ अतीत में जैसा भी कुछ कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी रूप में उपस्थित होता है, फलित होता है।
सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति। दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति।।
-औपपातिक सूत्र ७१ अच्छे कमों का फल अच्छा होता है। बुरे कर्मों का फल बुरा होता है।
कडाण कम्माण ण मोक्ख अत्थि।। -उत्तराध्ययन सूत्र ४.३
फल भोगे बिना कृत कर्मों से छुटकारा नहीं हो सकता है। जैन दर्शन में पुरुष/पुरुषकार ( पुरुषार्थ) की कारणता पुरुष या जीव कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता
___वर्तमान में जैन दर्शन में मान्य पंच समवाय के अन्तर्गत काल, स्वभाव, नियति एवं पूर्वकृत कर्म के साथ पुरुषार्थ की गणना की जाती है, जबकि सिद्धसेन सरि ने सन्मतितर्कप्रकरण में पुरुषार्थ का नहीं, 'पुरुष' शब्द का प्रयोग किया है। 'पुरुष' शब्द जगत् के कारण के रूप में मान्य आत्मा का भी बोधक है तो जीवात्मा का भी। जैनदर्शन में जीवात्मा के अर्थ में पुरुष शब्द का प्रयोग मान्य हो सकता है जिसे जैन दार्शनिक जीव या आत्मा भी कहते हैं। जैन दर्शनानुसार आत्मा ही अपने सुख-दुःख का कारण है, वह स्वयं ही अपने कारणों से बंधन को प्राप्त है तथा स्वयं में ही मुक्त होने का सामर्थ्य है।
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