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५६२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
इस जगत में जो भी प्राणी हैं, वे अपने-अपने संचित कों से ही संसार भ्रमण करते हैं और किये हुए कमों के अनुसार ही भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेते हैं। फल भोगे बिना उपार्जित कर्मों से प्राणी का छुटकारा नहीं होता।
अन्यत्र भी कर्म-सिद्धान्त की पुष्टि में कहा है
कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परब्बसा होंति। रुक्खां दुरुहइ सवसो, विगलइ स परवस्सो तत्तो।।
-बृहत्कल्पभाष्य, २९८९ जीव कर्मों का बंध करने में स्वतंत्र है, परन्तु उन कर्मों का उदय आने पर फल भोगने में उसके अधीन हो जाता है। जैसे कोई पुरुष स्वेच्छा से वृक्ष पर चढ़ तो जाता है किन्तु प्रमादवश गिरते समय परवश हो जाता है।
. रागो य दोसो विं य कम्मनीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। कम्मं च जाई मरणस्स मूलं, दुक्खं च मरणं वयंति।।
__-उत्तराध्ययन सूत्र ३२.७ राग-द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। वह जन्म-मरण का मूल है। जन्म-मरण को दुःख का मूल कहा गया है।
कम्मुणा ब्भणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। वइस्से कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा।।
-उत्तराध्ययनसूत्र २५.३३ कर्म से ही कोई ब्राह्मण होता है और कर्म से ही क्षत्रिय। कर्म से ही मनुष्य वैश्य होता है और शूद्र भी कर्म से ही होता है।
सव्वे सयकम्मकप्पिया, अव्वत्तेण दुहेण पाणिणो। हिंडंति भयाउला सदा, जाइ जरामरणोहिऽभिद्द्या।।
-सूत्रकृतांग सूत्र १/२/३/१८ सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही पृथक्-पृथक् योनियों में अवस्थित हैं। कमों की अधीनता के कारण अव्यक्त दुःख से दुःखित प्राणी जन्म, जरा और मरण से सदा भयभीत रहते हुए चार गति रूप संसार चक्र में भटकते रहते हैं।
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