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________________ ५६४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण जैन धर्म के अनुसार आत्मा ही अपने कर्मों का कर्ता, भोक्ता एवं उनका क्षय-कर्ता है। आत्मा में ही एतादृक् शक्ति है कि वह अनन्तज्ञानी बन सकता है। यहाँ तीर्थकर या गुरु का उपदेश निमित्त कारण हो सकता है, किन्तु उपादान कारण तो स्वयं आत्मा ही होता है। इस दृष्टि से जैन दर्शन को आत्म-स्वातन्त्र्यवादी दर्शन भी कहा जा सकता है। इसमें आत्मा का अधिष्ठाता किसी अन्य शक्ति, आत्मा या परमात्मा को स्वीकार नहीं किया गया। पुरुष के साथ पुरुषकार की कारणता स्वयंसिद्ध पुरुष को कारण मानने पर पुरुष का व्यापार अर्थात् पुरुषकार तो अपने आप कारण बन जाता है। जैनदर्शन में आगे चलकर 'पुरुष' के स्थान पर 'पुरुषकार' शब्द को महत्त्व मिला। आचार्य हरिभद्र सूरि ने अनेक स्थानों पर 'पुरुषकार' अथवा 'पुरुषक्रिया' शब्द का प्रयोग किया है। इसके अन्तर्गत आगम में प्रयुक्त उत्थान, कर्म, बल, वीर्य एवं पुरुषकार इन सभी शब्दों का समावेश जैन दर्शन में होने लगा। संक्षेप में इनके लिए श्रम, उद्यम या पुरुषार्थ शब्द का प्रयोग किया जा सकता है। आधुनिक काल में पुरुषार्थ शब्द का अधिक प्रयोग हो रहा है। तप-संयम में किया गया पराक्रम ही पुरुषार्थ आत्मा के द्वारा तप-संयम आदि में जो भी पराक्रम किया जाता है वह सब पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ पाप कर्मों के बंधन के लिए भी हो सकता है और मुक्ति के लिए भी। वह असंयम एवं कदाचार में भी हो सकता है और संयम तथा सदाचार में भी। किन्तु साधना की दृष्टि से तप संयम एवं सदाचार में किया गया पुरुषार्थ ही महत्त्व रखता है। जैन धर्म में इसी प्रकार के धर्म-पुरुषार्थ को स्थान प्राप्त है। स्वयं का पुरुषार्थ ही मोक्ष का साधक प्रत्येक भव्य आत्मा अपने पुरुषार्थ को जागृत कर पाप कर्मों से मुक्त हो सकता है। तीर्थकर तो मोक्ष के मार्ग का अपने उपदेशों में कथन मात्र करते हैं, उनके उपदेश को श्रवण कर कोई जीव संयम या पुरुषार्थ करे तो उसके जीवन की भावीदिशा बदल जाती है। आगम वाङ्मय में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता जिसमें तीर्थकर यह कहते हों कि मैं तुम्हें संसार सागर से उत्तीर्ण कर दूंगा। 'मामेकं शरणं ब्रज' जैसे वाक्य जैनागमों में प्राप्त नहीं होते हैं। वहाँ तो तीर्थकर के उपदेश पर श्रद्धा कर स्वयं पुरुषार्थ करने की बात पर ही बल दिया गया है। जिनेन्द्रों के द्वारा कथित वचनों पर प्रतीति एवं श्रद्धा करने की बात आगमों में अवश्य प्राप्त होती है। किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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