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________________ जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५५९ १. केवलज्ञान २. मनःपर्याय ज्ञान ३. परमावधि ज्ञान ४. परिहार विशुद्धि चारित्र ५. सूक्ष्म संपराय चारित्र ६. यथाख्यात चारित्र ७. पुलाकलब्धि ८. आहारक शरीर ९. क्षायिक सम्यक्त्व और १०. जिनकल्पी मुनि।२६ नियति की साधारण धारणाएँ (१) जो जन्मता है वह अवश्य मरण को प्राप्त करता है। यह भी एक नियति है। जिसे जैन दर्शन स्वीकार करता है। (२) जीव के अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आने का सिद्धान्त भी नियति से जुड़ा हुआ है, उसमें मान्यता है कि कोई एक जीव जब सिद्ध होता है तो निगोद की अव्यवहार राशि से एक जीव व्यवहार राशि में आता है। इसमें नियति ही कारण प्रतीत होती है। (३) यह भी नियत है कि कोई जीव एक बार भी सम्यक्त्व की प्राप्ति कर लेता है तो अधिकतम १५ भवों में अवश्य मोक्ष को प्राप्त करता है। (४) छ: मास आयुष्य शेष रह जाती है, उस समय जिनको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, वे निश्चय ही समुद्घात करते हैं। अन्य करते हैं अथवा नहीं भी करते हैं।२७ (५) लेश्या के परिणाम के पहले और अन्तिम क्षण में प्राणी की मृत्यु नहीं होती है, अन्तिम अन्तर्मुहूर्त शेष रहा हो उस समय अथवा प्रथम अन्तर्मुहूर्त व्यतीत हो गया हो तब होती है। इसमें भी अन्तिम अन्तर्मुहूर्त शेष रहा हो तब नारकी और देवता की मृत्यु होती है और प्रथम अन्तर्मुहूर्त व्यतीत होते मनुष्य और तिर्यच की मृत्यु होती है।३८ जैनदर्शन में पूर्वकृत कर्म की कारणता पूर्वकृत कर्म की कारणता का संबंध अजीव से नहीं जीव से है। जीवों में भी संसारी जीवों से है, मुक्त जीवों से नहीं। संसारी जीव अपने द्वारा किये हुए शुभअशुभ कर्मों के अनुसार फल प्राप्त करते हैं। पूर्वकृत कर्म की कारणता को विभिन्न भारतीय दर्शन स्वीकार करते हैं, किन्तु जैनदर्शन में कर्म-सिद्धान्त का व्यापक एवं व्यवस्थित विवेचन प्राप्त होता है। जैनदर्शन के अनुसार कर्म-पुद्गल स्वयं ही जीव को अपने उदयकाल में फल प्रदान करते हैं। जीव उन कर्मों के वश में होने के कारण अपने को परवश एवं असहाय अनुभव करता है। कहा भी है कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परब्बसा होति।२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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