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________________ ५६० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण अर्थात् कर्म करने में जीव स्वतंत्र है, किन्तु कर्म के उदयकाल में वह कर्म के अधीन हो जाता है। अष्टविध कर्मों का प्रभाव जैनदर्शन में कर्म के हेतु और उनके फल का सूक्ष्म विवेचन प्राप्त होता है। कर्म आठ प्रकार के माने गए हैं- १. ज्ञानावरण २. दर्शनावरण ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयुष्य ६. नाम ७. गोत्र ८. अन्तराय। जीव कषाय और योग से युक्त होकर इन कर्मों का बंध करता है तथा समय आने पर उनका फल प्राप्त करता है। ज्ञान एवं दर्शन जो जीव के स्वभाव एवं लक्षण माने जाते हैं वे ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण कमों के कारण आंशिक रूप में आवरित रहते हैं। जब यह आवरण पूर्णत: दूर हो जाता है तो ज्ञान एवं दर्शन पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते हैं जिन्हें केवलज्ञान और केवलदर्शन अथवा अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन कहा जाता है। पूर्वकृत कर्मों के कारण ही सुख-दुःख का वेदन एवं संसार परिभ्रमण होता है। सुख-दुःख के वेदन में वेदनीय कर्म कारण बनता है। अन्य प्राणियों को सुख प्रदान करने पर अपने को सुख की तथा दुःख प्रदान करने पर दुःख की प्राप्ति होती है। सुख की प्राप्ति में सातावेदनीय एवं दुःख की प्राप्ति में असातावेदनीय कर्म का उदय माना जाता है। जैनदर्शन में मान्य ८ कर्मों में सर्वाधिक शक्तिशाली कर्म मोहकर्म है। इस मोह कर्म के मुख्यतः दो प्रकार हैं- १. दर्शन मोहनीय २. चारित्र मोहनीय। दर्शन मोहनीय के रहते हुए जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती तथा चारित्र मोहनीय के रहते हुए क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय से मुक्ति नहीं मिलती। मिथ्यात्व का उदय एवं क्रोधादि कषायों का उदय मोहनीय कर्म का परिणाम है। राग-द्वेष आदि भी मोह कर्म के ही सूचक है। आठ कर्मों में सबसे पहले मोह कर्म का क्षय करने पर अन्य ज्ञानावरणादि घाती कर्म क्षय होते हैं। एक योनि से दूसरी योनि में परिभ्रमण का कारण आयुष्य कर्म है। इस आयुष्य कर्म के कारण ही जीव नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव गति के किसी भव में निश्चित अवधि तक जीवन यापन करता है तथा उस आयुष्य के समाप्त होने पर नई आयुष्य का भोग करने के लिए वह दूसरे भव में उत्पन्न होने के लिए गमन कर जाता है। इसलिए आयुष्य कर्म को भवभ्रमण का हेतु माना जाता है। जीव को शरीर, इन्द्रिय, अंगोपांग, श्वासोच्छ्वास आदि की प्राप्ति नाम कर्म के उदय के कारण होती है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय जीवों को यथायोग्य शरीर आदि की प्राप्ति में यह नाम-कर्म प्रमुख कारण है। गोत्र-कर्म से जीव हीन या उच्च कुलों में उत्पन्न होता है तथा अन्तराय कर्म के उदय से अपनी सक्रियाओं एवं आत्मपुरुषार्थ में विघ्न का अनुभव करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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