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५५८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण उपार्जन के अनुसार स्वभाव से प्राप्त होता है। किन्तु कौनसा कर्म कब फल प्रदान करेगा उसका जघन्य और उत्कृष्ट बंध कितनी अवधि का होगा, इसमें नियति के अतिरिक्त कोई कारण समझ में नहीं आता।
(४) पूर्वकृत कर्म जीव के भावी जीवन को प्रभावित करने में नियति की तरह कार्य करते हैं। नियति को भाग्य या दैव भी कहा जाता है। उस दृष्टि से जीव के द्वारा ही उसकी नियति निर्धारित होती है।
(५) जैनदर्शन में दो प्रकार के आयुष्य कर्म होते हैं- अपवर्त्य और अनपवर्त्य। अपवर्त्य आयुष्य वाले जीव का आयुष्य विभिन्न निमित्तों के मिलने पर निश्चित अवधि के पूर्व भी पूर्ण हो सकता है। इसमें एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के तिर्यच एवं मनुष्यों की गणना होती है। ये जीव कदाचित् पूर्ण आयुष्य भी भोग सकते हैं। अनपवर्त्य आयुष्य वाले जीव आयुष्य की पूर्ण अवधि को भोगकर ही मरण को प्राप्त होते हैं। देव और नारक का आयुष्य अनपवर्त्य होता है। यह नियति है। इसी प्रकार २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव, ९ प्रतिवासुदेव इन उत्तम पुरुषों का तथा उसी भव में मोक्ष जाने वाले चरम शरीरी जीवों का आयुष्य अनपवर्त्य होता है। इसमें भी नियति को कारण माना जा सकता है।
देवता, नारकी-जीव तथा असंख्यात आयुष्य वाले तिर्यच और मनुष्यों का जब ६ महीने आयुष्य शेष रह जाता है तब वह आगामी जन्म का आयु बंधन करता है। शेष निरुपक्रमी आयुष्य वाले अपनी आयुष्य का तीसरा विभाग शेष रहे तब निश्चय से अगले जन्म का आयुष्य बंधन करते हैं।५ (६) जैन कर्मवाद के अनुसार कर्म के दो प्रकार हैं- १. दलिक २. निकाचित। दलिक कर्म परमाणुओं की स्थिति आदि में सदा परिवर्तन की संभावना रहती है। निकाचित कर्मों के फल में परिवर्तन की संभावना प्राय: समाप्त हो जाती है। सामान्यतया निकाचित कर्म जिस रूप में बाँधे जाते हैं उसी रूप में उनका भोग अनिवार्य है। इस प्रकार निकाचित कर्म नियति के सूचक है। केवलज्ञान सहित दश बोलों का विच्छेद
वर्तमान में यह मान्यता है कि जम्बूस्वामी के मोक्ष जाने के पश्चात् जम्बूद्वीप से कोई मोक्ष नहीं जा सकता। इस मान्यता के पीछे क्या कारण है यह स्पष्ट नहीं है, पर इस मान्यता को नियति के खाते में डाला जा सकता है। विशेषावश्यक भाष्य में जम्बस्वामी के मोक्ष जाने के पश्चात् दश बोलों का विच्छेद प्रतिपादित है। वे दश बोल हैं
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