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जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५५७ (२) क्षेत्राश्रित सिद्ध- ऊँचे लोक में ४, नीचे लोक में २० और मध्यलोक में १०८ सिद्ध होते हैं। समुद्र में २, नदी आदि सरोवरों में ३, प्रत्येक विजय में अलगअलग २० सिद्ध हों तो भी एक समय में १०८ से ज्यादा जीव एक समय में सिद्ध नहीं हो सकते। मेरुपर्वत के भद्रशाल वन, नन्दनवन और सौमनस वन में ४, पाण्डुक वन में २, अकर्मभूमि के क्षेत्रों में १०, कर्मभूमि के क्षेत्रों से १०८, पहले, दूसरे, पाँचवें तथा छठे आरे में १० और तीसरे-चौथे आरे में १०८ सिद्ध होते हैं। यह संख्या भी सर्वत्र एक समय में अधिक से अधिक सिद्ध होने वालों की है।
(३) अवगाहना आश्रित सिद्ध- जघन्य दो हाथ की अवगाहना वाले एक समय में ४ सिद्ध होते हैं। मध्यम अवगाहना वाले १०८ और उत्कृष्ट ५०० धनुष की अवगाहना वाले एक समय में २ जीव सिद्ध होते है।३१
(४) जितने भी जीव सिद्ध होते हैं, वे अपने अंतिम शरीर से तीसरे भाग कम आत्मप्रदेशों की अवगाहना सिद्ध दशा में प्राप्त करते हैं। यह प्रक्रिया भी नियति का एक रूप है।३२ ६३ शलाका पुरुषों में नियति
(१) २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव, ९ प्रतिवासुदेव आदि की निश्चित मान्यता भी जैन धर्म में नियति के प्रवेश की सूचक है।
(२) तीर्थकर की माता और चक्रवर्ती की माता १४ स्वप्न देखती है। बलदेव की माता ४, वासदेव की माता ७, प्रतिवासुदेव की माता ३ स्वप्न देखती है। इन स्वप्नों की वस्तु और संख्या की अपरिवर्तनशीलता नियति को स्पष्ट करती है।३३ कर्म-सिद्धान्त में नियति
(१) योग और कषाय के होने पर कर्म-पुद्गल आत्मा के साथ चिपककर बंध को प्राप्त होते हैं, यह नियत है। इसके विपरीत कषाय पर विजय प्राप्त करने वाला या मोह पर विजय प्राप्त करने वाला मोक्ष को प्राप्त करता है, यह भी नियत है।
(२) विभिन्न गतियों में जीवों की उत्कृष्ट आयु नियत है। उससे अधिक वह वहाँ लाख पुरुषार्थ करने पर भी नहीं जी सकता है। देवगति और नरकगति में जघन्य आयु १०००० वर्ष एवं उत्कृष्ट आयु ३३ सागरोपम मानी गई है। इसी प्रकार देह के आकार इत्यादि का भी विभिन्न आरकों के आधार पर आकार निश्चित है।
(३) कर्मफल के सिद्धान्त में भी नियति कार्य करती है। पुरुषार्थ से कोई शुभ या अशुभ कर्म का बंध करता है तथा उन कर्मों का शुभ-अशुभ फल पूर्वकृत
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