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५५० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
स्थिति में उसके उन कर्मप्रकृतियों का उपशम कैसे होता है? इसका समाधान करते हुए स्वयं उन्होंने ही लिखा है'काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात्' अर्थात् काललब्धि आदि के निमित्त से यह संभव है। काललब्धि का एक दूसरा स्वरूप प्राप्त होता है जिसके अनुसार कर्मों की स्थिति जब अन्त:कोटाकोटि सागरोपम की बंधती है तब सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति संख्यात हजार कम अन्तःकोटाकोटि सागरोपम हो
जाती है और यह जीव प्रथम सम्यक्त्व के योग्य होता है।११। २. महापुराण में उल्लेख है कि अनादि काल से चला आया कोई जीव काल
आदि लब्धियों का निमित्त पाकर तीनों करण रूप परिणामों के द्वारा मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों का उपशम करता है तथा संसार की परिपाटी
का उच्छेद कर उपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है।१२ ३. मोक्षपाहुड में कहा गया है कि जिस प्रकार स्वर्ण पाषाण को उसकी शोधन
सामग्री द्वारा शुद्ध बनाया जा सकता है उसी प्रकार कालादि की लब्धि से
आत्मा परमात्मा बन जाता है। ४. प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति में वर्णन है कि अतीत अनन्तकाल में जो कोई
भी सिद्धसुख के भाजन हुए हैं या भावी काल में होंगे, वे सब काललब्धि के वश से ही हुए हैं।" कतिपय घटनाओं में काल की कारणता को अंगीकार किया गया है, जैसाकि धवला पुस्तक में निम्नांकित प्रश्नोत्तर से सिद्ध होता है- प्रश्न : इन (६६) दिनों में दिव्यध्वनि की प्रवृत्ति किसलिए नहीं हुई? उत्तर : गणधर का अभाव होने के कारण। प्रश्न : सौधर्म इन्द्र ने उसी समय गणधर को उपस्थित क्यों नहीं किया? उत्तर : नहीं किया, क्योंकि काललब्धि के बिना
असहाय सौधर्म इन्द्र में उनको उपस्थित करने की शक्ति का अभाव था।५ अबाधा काल के रूप में काल की कारणता
कर्म के उदय के पूर्व जैनदर्शन में अबाधाकाल की अवधारणा है। अबाधाकाल में कर्म का उदय नहीं होता है, इसमें कर्म का निश्चित अबाधा काल स्वीकार करने के कारण काल की कारणता पुष्ट होती है। यथा- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मों का अबाधाकाल उत्कर्षत: तीन हजार वर्ष का, गोत्र और नाम कर्म का दो-दो हजार वर्ष का, मोहनीय कर्म का सात हजार वर्ष का और आयुष्य कर्म का एक तृतीयांश पूर्व कोटि वर्ष का है।९६
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