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________________ जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५४९ काल की बहिरंग कारणता __काल स्वतंत्र द्रव्य है तथा वह अन्य द्रव्यों के पर्याय-परिणमन में बहिरंग कारण है। अन्तरंग कारण तो धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य स्वयं हैं, वे परिणमन में समर्थ होते हुए भी बहिरंग कारण 'काल' की अपेक्षा रखते हैं। जैसे कि आचार्य विद्यानन्दि कहते हैं- 'समर्थोऽपि बहिरंगकारणापेक्षा परिणामत्वे सति कार्यत्वात्, ब्रीह्यादिवदिति यत्तत्कारणं बाहां स कालः। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यों की वर्तना बहिरंग कारण की अपेक्षा रखती है। जिस प्रकार चावलों के पकने में बहिरंग कारण अग्नि है, उसी प्रकार जीव आदि द्रव्यों की वर्तना में और उनकी सत्ता में बहिरंग कारण काल द्रव्य है। यही नहीं सूर्य आदि गमन, ऋतु-परिवर्तन आदि में भी कार्य कारण बनता है।' वर्तना का कारण आकाश नहीं, काल है भट्ट अकलंक ने राजवार्तिक में प्रश्न उपस्थित किया है कि आकाश प्रदेश के निमित्त से ही अन्य द्रव्यों की वर्तना हो सकती है, अत: काल नामक द्रव्य को उसका हेतु मानने की आवश्यकता नहीं है। तब काल की सिद्धि में भट्ट अकलंक ने हेतु देते हुए कहा है कि जैसे बर्तन चावलों का आधार है, परन्तु पाक के लिए तो अग्नि का व्यापार ही चाहिए, उसी तरह आकाश वर्तना वाले द्रव्यों का आधार तो हो सकता है पर वह वर्तना की उत्पत्ति में सहकारी नहीं हो सकता। उसमें तो कालद्रव्य का ही व्यापार अपेक्षित है। काललब्धि के रूप में काल की कारणता __पदार्थ जगत् में और भाव जगत् में होने वाले परिणमनों में काल की विशेष भूमिका रहती है। जैन परम्परा के अनुसार काललब्धि के परिपाक से अनेक कार्य सम्पन्न होते हैं, जिसमें काल ही प्रमुख कारण के रूप में उभर कर आता है। कुछ उद्धरण निम्न हैं१. अव्यवहार राशि का जीव व्यवहार राशि में आता है, इसका कारण है- काल लब्धि। अनादि काल से मिथ्यात्वी प्राणी के जब मोक्ष-प्राप्ति में अर्द्धपुद्गलपरावर्तन जितना समय शेष रहता है तब वह अनन्तानुबंधी चतुष्क व दर्शन मोहत्रिक इन सात प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम या क्षय से औपशमिक आदि सम्यक्त्व प्राप्त करता है। पूज्यपाद ने प्रश्न उठाया है कि अनादि मिथ्यात्वी भव्य प्राणी का कर्मोदय इतना सघन होता है, फिर उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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