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________________ ५४८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण परमार्थकाल सूक्ष्म रूप से सर्वत्र साधारण निमित्त है और यही षड् द्रव्यों के पर्यायपरिणमन एवं वर्तना में प्रमुख निमित्त है। काल के कार्यों का कथन तत्त्वार्थसूत्र में इस प्रकार किया गया है 'वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य" वर्तना, परिणाम, क्रिया और परत्व-अपरत्व काल के कार्य हैं। वर्तन को परमार्थकाल का और परिणाम, क्रिया, परत्व-अपरत्व को व्यवहार काल का कार्य माना जा सकता है। प्रत्येक पदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के रूप में जो निरन्तर परिवर्तनशील होता रहता है, वह वर्तना है। यह वर्तन लोक-अलोक में व्याप्त होने से परमार्थ काल का कार्य है। व्यवहार में काल की कारणता लोक में दृष्टिगत कार्य ही व्यवहार काल के अनुमापक बनते हैं। "दव्वपरिवट्टरूवो परिणामादीलक्खो जो सो कालो हवइ ववहारो' अर्थात् जो द्रव्यों के परिवर्तन में सहायक तथा परिणामादि लक्षण वाला है, वह व्यवहारकाल है। द्रव्यों के परिवर्तन से तात्पर्य जीव व पुद्गल की जीर्ण एवं नूतन पर्याय से है और परिणामादि से तात्पर्य परिणाम, क्रिया, परत्व-अपरत्व से है। परिणाम जैसे मिट्टी की कुम्भ के रूप में, सुवर्ण की मुकुट-कलश के रूप में परिणति, क्रिया जैसे द्रव्य का हलन, चलन तथा पर-अपर अर्थात् पूर्वभावी पश्चाद्भावी रूप से व्यवहार काल व्यवहृत होता है। जैनदर्शन में श्रमण दीक्षा के लिए न्यूनतम आयु ८ वर्ष मानी गई है तथा केवलज्ञान-प्राप्ति के लिए न्यूनतम आयु ९ वर्ष की अंगीकार की गई है जिसमें स्वाभाविक रूप से व्यवहारकाल की कारणता प्रकट हो रही है। धर्मास्तिकाय की भाँति 'काल' की स्वतन्त्र दव्यता पंचास्तिकाय की तात्पर्य वृत्ति में कहा है- 'गतिपरिणतेधर्मदव्यं सहकारिकारणं भवति कालद्रव्यं च। जीव और पुद्गल स्वयं ही गति करते हैं और स्वयं ही स्थिर रहते हैं, किन्तु उनकी गति और स्थिति में निमित्त रूप से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को स्वतंत्र द्रव्य माना गया है। इसी प्रकार जीव और अजीव में पर्याय-परिणमन का स्वभाव होने पर भी निमित्त कारण रूप काल द्रव्य को स्वतंत्र द्रव्य स्वीकार किया जाना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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