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________________ जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५४७ उन पाँचों वादों का समन्वय भी स्थापित किया है तथा उसे 'पंचसमवाय' नाम दिया है, जैसी कि पहले चर्चा की गई है। शतावधानी रत्नचन्द्र जी महाराज ने भी कारण संवाद नाम से काल आदि पाँच कारणवादों का समन्वय नाटक के रूप में किया है। इसमें राजा, मंत्री, कालवादी, स्वभाववादी, नियतिवादी, पूर्वकृत कर्मवादी और पुरुषार्थवादी को पात्र बनाया गया है। जिनका पारस्परिक संवाद अतिरोचक है। कानजी स्वामी (२०वीं शती) ने कालनय, स्वभावनय, नियतिनय, पूर्वकृतकर्मनय, और पुरुषार्थनय के आधार पर 'पंचसमवाय' सिद्धान्त का विशद निरूपण किया है। जैनागम एवं उत्तरकालीन वाङ्मय का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि जैन दर्शन में काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृतकर्म, पुरुष/पुरुषार्थ में प्रत्येक की कथंचित् कारणता स्वीकार की गई है। जैन परम्परा में इन पाँचों कारणों का समवाय मान्य है। काल आदि में से किसी एक की कारणता को ही न मानकर सबकी कारणता को यथोचित स्थान दिया गया है। यहाँ पर पाँचों की कारणता के संबंध में विचार किया जा रहा है। पाँचों का समन्वय करने के पूर्व काल आदि प्रत्येक की कारणता पर विचार प्रस्तुत है जैन दर्शन में काल की कारणता सभी द्रव्यों के परिणमन में काल की कारणता जैन दर्शन में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय के पर्याय-परिणमन में काल को कारण अंगीकार किया गया है। यह सभी द्रव्यों के पर्याय परिणमन में समान रूप से कारण है। गोम्मटसार-जीवकाण्ड में नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कहते हैं वत्तणहेदू कालो वत्तणगुणमवि य दव्वणिचयेसु। कालाधारेणेव य वट्टति हु सव्वदव्वाणि।।" वर्तन हेतु वाला काल है। द्रव्यों में परिवर्तन गुण होते हुए भी काल के आधार से सर्व द्रव्य वर्तन करते हैं। काल के जैनदर्शन में दो प्रकार निरूपित हैं- १. परमार्थ या निश्चय काल २. व्यवहार काल। परमार्थ काल सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है जबकि व्यवहार काल अढाई द्वीप (जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, अर्द्धपुष्कर द्वीप) में ही माना गया है। कालगणना में यह व्यवहार काल ही उपयोगी होता है। आगमों में सभी गणनाएँ व्यवहार काल के आधार पर की गई हैं। व्यवहार काल कार्य के होने में स्थूल निमित्त हो सकता है, किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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