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________________ ५४६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण आचार्यों के साहित्य में होती रही है, तथापि 'पंच समवाय' नामकरण का अस्तित्व प्राचीन वाङ्मय में प्राप्त नहीं होता। 'पंच समवाय' शब्द का प्रयोग १९वीं शती में ही प्रयुक्त होता हुआ दृष्टिगोचर होता है। स्थानकवासी सम्प्रदाय के तिलोकऋषि (वि.सं. १९३०) के काव्य में यह शब्द प्रसिद्ध हो चुका था। वे कहते हैं पंच समवाय मिल्या होत है कारज सब एक समवाय मिल्या कारज न होइए । पंच समवाय माने सो ही समदृष्टि जीव । अनुभो लगाय दूर दृष्टि कर जोइए । । तिलोकऋषि जी ने पंच समवाय को प्रत्येक कार्य में कारण प्रतिपादित किया है तथा यह भी कहा है कि वही जीव सम्यग्दृष्टि होता है जो पाँच समवाय के सिद्धान्त को स्वीकार करता है। तिलोकऋषि जी के इस कथन में सिद्धसेनसूरि का वही वाक्य प्रतिध्वनित हो रहा है, जिसमें कहा गया है- 'मिच्छत्तं ते चेव, समासओ होंति सम्मत्तं' अर्थात् कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, पूर्वकृतकर्मवाद एवं पुरुषवाद में जहाँ एक-एक कारणवाद अपने आपमें मिथ्यात्व के सूचक हैं वहाँ वे सभी मिलकर सम्यक्त्व का स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं । सिद्धसेनसूरि की इस दृष्टि को जैनाचार्यों ने निरन्तर पल्लवित एवं पुष्पित किया जो १९वीं २०वीं शती में सुदृढ़ वृक्ष की भाँति फल-फूलों से सम्पन्न बन गया। १९वीं एवं २०वीं शती में 'पंच समवाय' सिद्धान्त जैन मत में अनेकान्तवाद की भाँति प्रसिद्ध हो गया । सम्प्रति जैनदर्शन के कारण कार्य सिद्धान्त में पंच समवाय की चर्चा अपरिहार्य बन गई है। सिद्धसेन, हरिभद्र, अभयदेव, शीलांक की परम्परा को पुनर्जीवित या सुदृढ़ करने में १७वीं शती के दार्शनिक उपाध्याय यशोविजय एवं उनके समकालीन उपाध्याय विनयविजय का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उपाध्याय यशोविजय ने हरिभद्रसूरि के 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' पर टीका लिखते समय काल आदि पाँच कारणों का समन्वय स्थापित किया है तथा उपाध्याय विनयविजय ने पाँच कारणों पर स्तवन की रचना की है, जो सम्प्रति उपलब्ध है। पंच समवाय की प्रतिष्ठा उन्नीसवीं-बीसवीं शती में स्थानकवासी परम्परा के संत श्री तिलोकऋषि ने कालवादी आदि पाँच वादियों के सिद्धान्तों का निरूपण हिन्दी के सवैया छन्द में करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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