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________________ जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५४५ पूर्वकृत कर्म को भी यथोचित स्थान दिया है। आगमों में यत्र-तत्र इनकी कारणता की कथंचित् पुष्टि भी होती है जिसकी चर्चा आगे की जायेगी। किन्तु इस क्षेत्र में सर्वप्रथम श्रेय प्रमुख दार्शनिक सिद्धसेन दिवाकर को जाता है जिन्होंने काल आदि पाँच की कारणता को जैन दर्शन में स्थान दिया। उन्होंने निम्नांकित पद्य में पाँच कारणों की गणना की कालो सहाव णियई पुव्वकयं पुरिसे कारणेगंता । मिच्छतं ते चेव उ, समासओ होंति सम्मत्तं । । सिद्धसेन दिवाकर ने काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म एवं पुरुष की एकान्त कारणता को मिथ्यात्व कहा है तथा इनकी सम्मिलित कारणता को सम्यक्त्व कहा है। इसका तात्पर्य है कि उन्होंने अपने कथन में नयवाद का उपयोग किया है। नयवाद एकान्तवाद नहीं है, अपितु इसमें किसी एक को प्रधान एवं अन्य को गौण मानकर भी सत्य का कथन किया जाता है। सिद्धसेन दिवाकर जैन दर्शन के क्रान्तिकारी दार्शनिक थे। उन्होंने अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और नयवाद की स्थापना में अग्रणी दार्शनिक के रूप में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। वे श्वेताम्बर परम्परा के प्रतिनिधि दार्शनिक थे। दिगम्बर परम्परा में आचार्य समन्तभद्र ने भी इसी प्रकार का कार्य किया। वे भी स्वयंभूस्तोत्र, आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन आदि कृतियों के माध्यम से अनेकान्तवाद, स्याद्वाद एवं नयवाद की स्थापना में युक्तिपूर्वक लगे रहे, किन्तु उन्होंने काल आदि पाँच की कारणता के संबंध में अपनी कृतियों में कोई उल्लेख नहीं किया। सिद्धसेन के पश्चात् हरिभद्रसूरि ( ७००- ७७० ईस्वीं शती), शीलांकाचार्य (९-१०वीं शती), अभयदेवसूरि (१०वीं शती), मल्लधारी राजशेखर सूरि (१२१३वीं शती), उपाध्याय विनयविजय ( १७वीं शती) एवं उपाध्याय यशोविजय ( १७वीं शती) ने भी अपनी कृतियों में काल आदि पाँच तत्त्वों की कारणता को जैन दर्शन में स्थान दिया है। वर्तमान में जैन धर्म की दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में काल आदि की कारणता को 'पंच समवाय' के रूप में अंगीकार किया जाता है। 'पंच समवाय' शब्द का प्रथम प्रयोग पंच समवाय का अर्थ है काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म एवं पुरुषार्थ / पुरुष - इन पाँचों का समवाय । कालादि पाँचों का समवाय चेतन जीव के किसी भी कार्य में कारण होता है, यह मान्यता ही जैन दर्शन में 'पंच समवाय' सिद्धान्त के रूप में जानी जाती है। यद्यपि काल आदि कारणता की चर्चा सिद्धसेनसूरि एवं उनके उत्तरवर्ती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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