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________________ ५४४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण पुरुषवाद का विशेष निरूपण एवं निरसन है । इस ग्रन्थ की यह विशेषता है कि इसमें पुरुषवाद का नियतिवाद के द्वारा, नियतिवाद का कालवाद के द्वारा, कालवाद का स्वभाववाद के द्वारा, स्वभाववाद का भाववाद के द्वारा एवं फिर पुरुषवाद का भी निरसन किया गया है। यह निरसन विविध सिद्धान्तों के एकान्तवाद को उत्पाटित कर उनकी कथंचित् कारणता को अंगीकार करता है। आठवीं नवीं शती में विद्यानन्दि (७७५-८४० ई.) द्वारा रचित तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में नयों की विशेष चर्चा है, जो नय के स्वरूप, भेदों एवं उनके महत्त्व से संवलित है। अमृतचन्द्राचार्य ने प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका के अन्त में द्रव्यनय, पर्यायनय, अस्तित्वनय, नास्तित्वनय, अवक्तव्यनय, कालनय, स्वभावनय, नियतिनय, दैवनय, पुरुषकारनय आदि ४७ नयों का उल्लेख कर प्रत्येक का संक्षेप में स्वरूप भी निरूपित किया है। दशवीं शती से तेरहवीं शती के मध्य माइल्लधवल द्वारा विरचित 'द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र' ग्रन्थ भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है जिसमें काल, नियति, पुरुषवाद आदि का तो विवेचन नहीं है, किन्तु पर्याय - विवेचन के अन्तर्गत स्वभावपर्याय एवं विभाव पर्याय की चर्चा महत्त्वपूर्ण है, जिससे स्वभाव के स्वरूप का निर्धारण होता है। देवसेन द्वारा रचित 'नयचक्र' एवं 'आलापपद्धति' नामक रचनाएँ भी जैनदर्शन के नय-विषयक चिन्तन पर प्रकाश डालती हैं। इस प्रकार जैनदर्शन में नयसिद्धान्त एक सत्यान्वेषी सिद्धान्त है, जिसमें आदरपूर्वक अन्य मतों को भी कथंचित् महत्त्व देकर पारस्परिक विरोध का शमन किया गया है। पंच कारण समवाय के प्रथम प्रणेता : सिद्धसेन दिवाकर जैन दर्शन की अनेकान्तवाद, नयवाद और स्याद्वाद की पद्धति के कारण यथार्थ के अन्वेषण, ग्रहण और कथन की प्रवृत्ति जैन दर्शन की एक मौलिक एवं अनमोल निधि बन गई। जैन दार्शनिकों ने नयवाद के आधार पर जैन दर्शन को विस्तार प्रदान किया। पंच समवाय का सिद्धान्त भी उनकी इसी प्रवृत्ति का सूचक है। जैनागमों में पंच समवाय नामक किसी सिद्धान्त का कहीं भी प्रतिपादन नहीं हुआ है। किन्तु जैन दर्शन की समन्वयात्मक नयदृष्टि के कारण कार्य-कारण सिद्धान्त की व्याख्या में काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुष / पुरुषकार का समावेश एक क्रान्तिकारी कदम है। जैन दर्शन मूलतः पुरुषार्थवादी दर्शन है, आत्मस्वातन्त्र्यवादी दर्शन है तथा आत्मा के कर्तृत्व और भोक्तृत्व को मुख्यता प्रदान करने के साथ बंधन और मोक्ष का उत्तरदायित्व भी आत्मा को ही सौंपता है, तथापि व्यापक, खुली एवं सत्यान्वेषी नय दृष्टि के कारण जैन दार्शनिकों ने कारण-कार्य सिद्धान्त में काल, स्वभाव, नियति एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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