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५१६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि और अग्नि से जल तथा जल से पृथ्वी की उत्पत्ति निर्दिष्ट है। भगवद् गीता में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं- 'बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।१७ रामायण और मनुस्मृति में भी सृष्टि रचना का इसी प्रकार निरूपण हुआ है। मनुस्मृति में स्वयंभू परमात्मा से पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश की उत्पत्ति प्रतिपादित है।
जैनागम सूत्रकृतांग में ब्रह्म, ईश्वर और स्वयंभू के द्वारा जगत् के निर्माण की चर्चा है। जैनाचार्यों ने पुरुषवाद, ब्रह्मवाद और ईश्वरवाद तीनों का निरूपण एवं निरसन किया है। इस अध्याय के पूर्वार्द्ध में पुरुषवाद के अन्तर्गत ब्रह्मवाद एवं ईश्वरवाद का भी उपस्थापन एवं खण्डन किया गया है।
द्वादशारनयचक्र में मल्लवादी क्षमाश्रमण ने, विशेषावश्यकभाष्य में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने तथा सन्मतितर्क टीका में अभयदेव सूरि ने पुरुषवाद का उपस्थापन एवं निरसन किया है। पुरुषवाद के उपस्थापन के कतिपय बिन्दु निम्न प्रकार हैं१. समस्त सूक्ष्म और स्थूल जगत् का कारण पुरुष है। यह पुरुष चेतन
आत्मा के रूप में प्रतिपादित है। बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा आदि सूक्ष्म जगत् और रूप, रसादि स्थूल जगत् की अभिव्यक्ति पुरुष से ही होती है। चेतन पुरुष ही सूक्ष्म-स्थूल जगत् के रूप में अभिव्यक्त होता है। इसलिए
वह पुरुष सर्वात्मक है। ३. वह पुरुष ज्ञान लक्षण वाला है। जब ज्ञान पुरुष सर्वात्मक है तो वह सर्वज्ञ
भी है। ४. पुरुष की चार अवस्थाएँ हैं- जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तूर्य।
जिस प्रकार कुम्भकार के प्रयत्न से भ्रमणशील चक्र में कुम्भकार की प्रवृत्ति का शेष पाया जाता है उसी प्रकार पुरुष की प्रवृत्ति का शेष यह जगत् है। जिस प्रकार सूक्ष्म रूप, रस, गंध, स्पर्श एवं शब्द के नाना भेदों से युक्त पृथ्वी आदि स्थूल रूपादि उत्पन्न होते हैं। उसी प्रकार अमूर्त पुरुष से भी रूपादि भाव प्राप्त होते हैं। एक पुरुष ही समस्त लोक की स्थिति-सर्ग-प्रलय का हेतु है। प्रलय में भी अलुप्त ज्ञानातिशय की शक्ति से युक्त होता है। पुरुष की कारणता के संबंध में अभयदेव सूरि ने निम्नांकित मंत्र उद्धृत किया है
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