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पुरुषवाद और पुरुषकार ५१५ हरिभद्रसूरि ने 'पुरिसे' के स्थान पर 'पुरिसकिरियाओ' (पुरुषक्रिया) शब्द का प्रयोग किया है जो धीरे-धीरे पुरुषकार एवं पुरुषार्थ के रूप में प्रयुक्त होने लगा। जैन दर्शन के फलक पर यह पुरुषक्रिया, पुरुषकार या पुरुषार्थ शब्द का प्रयोग अधिक समीचीन है।
'पुरिसे' एवं 'पुरिसकिरियाओ' शब्दों के आधार पर प्रस्तुत अध्याय दो भागों में विभक्त है। अध्याय के पूर्वार्द्ध में 'पुरुषवाद' की चर्चा है, जिसके साथ ब्रह्मवाद एवं ईश्वरवाद पर भी विचार किया गया है। अध्याय के उत्तरार्द्ध में पुरुषकार/पुरुषार्थ का निरूपण है।
'पुरुषवाद' के बीज ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में उपलब्ध हैं। इसमें ऐसे पुरुष की कल्पना की गई है जो सहन शिरों, सहस्र भुजाओं वाला, सहस्र नेत्रों वाला और सहस्र पैरों वाला है। वह सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त किये हुए है। पुरुष सूक्त का एक मंत्र प्रसिद्ध है
पुरुष एवेदं सर्व यद् भूतं यच्च भाव्यम्।
उतामृतत्वस्येश्वरो यदन्येनाभवत् सह।।२१५ जो विद्यमान है, उत्पन्न हुआ है, उत्पन्न होने वाला है, जो मोक्ष-सुख और उससे भिन्न का भी शासक है वह पुरुष ही है। उस पुरुष से ही समस्त सृष्टि की रचना स्वीकार की गई है। ऋग्वेद का यह मंत्र ही पुरुषवाद की मान्यता का आधार प्रतीत होता है।
___ उपनिषद् वाङ्मय में भी पुरुषवाद की मान्यता का समर्थन प्राप्त होता है। ऐतरेयोपनिषद्, श्वेताश्वतरोपनिषद्, मुण्डकोपनिषद्, तैत्तिरियोपनिषद्, प्रश्नोपनिषद् आदि उपनिषदों में पुरुषवाद वर्णित है। कहीं ब्रह्मवाद के रूप में उसका वर्णन किया गया है। तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा गया है
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति।
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञास्व। तद् ब्रह्मेति।।१६
उपनिषदों में ब्रह्म से जगत् की उत्पत्ति का विवेचन अधिक हुआ है। जो पुराणों में परिवर्धित हुआ है। हरिवंश पुराण में भगवान नारायण को ब्रह्म से उत्पन्न स्वीकार किया गया है। देवी भागवत पुराण में अद्वैत ब्रह्म का निरूपण करते हुए उसे नित्य और सनातन बताया है तथा यह भी कहा गया है कि जब वह विश्व की रचना में तत्पर होता है तब वह अनेक रूप हो जाता है। महाभारत में अविनाशी परमात्मा से
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