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________________ ५१४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण गुणश्रेणियों का उपर्युक्त विवेचन जीव के आत्मिक पुरुषार्थ को पुष्ट करता है। जीव के भावों की विशुद्धि से क्रोधादि कषायों पर नियन्त्रण से और सम्यक्त्व के प्रभाव से कर्मदलिक तीव्रता से क्षय को प्राप्त होते हैं। यही गुणश्रेणियों का प्रतिपाद्य है। पुरुषार्थ के उपर्युक्त विवेचन से यह सुस्पष्ट है कि जैनदर्शन में धर्मपुरुषार्थ की प्रमुखता है और वही मोक्ष का साधन है। जैन-साधना पद्धति में पुरुषक्रिया या पराक्रम का विशेष स्थान है । चारित्र-धर्म हो या तप का आचरण सर्वत्र आत्म-पुरुषार्थ अपेक्षित है। संवर एवं निर्जरा की समस्त साधना में आत्म-उद्यम रूप पुरुषार्थ अपेक्षित है। गुणश्रेणि से होने वाली निर्जरा में इस पुरुषार्थ का विशेष महत्त्व है। पुरुषकार तो जीव का लक्षण भी है जो मोक्ष का भी साधन है। लब्धिवीर्य एवं करण वीर्य का प्रतिपादन हो या संयम में पराक्रम का, साधना में अप्रमत्तता का विवेचन हो या परीषह-जय का, अपवर्तन करण का प्रसंग हो या संक्रमण करण का सर्वत्र जैनदर्शन में आत्मपौरुष रूप पुरुषार्थ का महत्त्व स्थापित है। निष्कर्ष - जैनदर्शन मान्य ‘पंच समवाय' सिद्धान्त में पुरुषकार या पुरुषार्थ का अप्रतिम स्थान है। आधुनिक मान्यतानुसार पंच समवाय में काल, स्वभाव, नियति एवं कर्म के साथ पुरुषार्थ का समावेश किया जाता है। यह उपयुक्त ही है, क्योंकि जैनदर्शन श्रमणसंस्कृति का प्रतिनिधिदर्शन है जिसमें 'श्रम' का महत्त्व निर्विवाद है। यह श्रम दुःखमुक्ति के लिए करणीय साधना को इंगित करता है। इस श्रम में संयम एवं तप की साधना का समावेश है। आगम-वाङ्मय में एतादृक् पुरुषार्थ के पोषक अनेक उद्धरण सम्प्राप्त हैं। ___ आत्मकृत कर्म के अनुसार फलप्राप्ति को स्वीकार करने वाले आत्मस्वातन्त्र्यवादी जैनदर्शन में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार एवं पराक्रम आदि के रूप में पुरुषार्थ की महत्ता स्थापित हो यह स्वाभाविक है, तथापि इस अध्याय में पुरुषवाद एवं पुरुषार्थवाद का पृथकरूपेण विचार करने का कारण है सिद्धसेनसूरि की निम्नांकित गाथा कालो सहाव नियई पुवकयं पुरिसे कारणेगंता। मिच्छत्तं ते चेव उ, समासओ होन्ति सम्मत्तं।।१४ इस गाथा में 'पुरिसे' शब्द आया है, जिसका टीकाकार शीलांक ने 'पुरुष' अर्थ करके पुरुषवाद की चर्चा की है। पुरुषवाद के अनुसार जगत् का स्रष्टा परम पुरुष है जो सर्वव्यापक है, नित्य है, सर्वज्ञ है और एक है। इस पुरुषवाद का जैन दार्शनिक निरसन करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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