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पुरुषवाद और पुरुषकार ५१३ कहा जाता है और उन स्थानों में होने वाली निर्जरा गुणश्रेणि निर्जरा कहलाती है। गुणश्रेणि का विधान आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों में ही होता है।
सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय जो तीन करण होते हैं, उनमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में गुणश्रेणि होती है। सम्यक्त्व प्राप्त होने के पश्चात् भी जीव अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त प्रवर्द्धमान परिणाम वाला रहता है तब जो गुणश्रेणि होती है वह सम्यक्त्व निमित्तक गुणश्रेणि कहलाती है। देशविरति और सर्वविरति के निमित्त से भी गुणश्रेणियाँ होती हैं। उनमें प्रथम गुणश्रेणि की अपेक्षा द्वितीय गुणश्रेणि में असंख्यात गुनी कर्मदलिकों की निर्जरा होती है और द्वितीय गुणश्रेणि से तृतीय गुणश्रेणि में संख्यात गुनी दलिकों की गुणश्रेणि रचना होती है। सर्वविरति नामक गुणश्रेणि प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थान में होती है। अनन्तानुबंधी की विसंयोजना में होने वाली चौथी गुणश्रेणि चौथे से सातवें गुणस्थान तक होती है । परन्तु सप्तम गुणस्थानवर्ती जीव अनन्तगुण विशुद्ध परिणाम वाला होने से सर्वविरति के निमित्त से होने वाली गुणश्रेणि की अपेक्षा असंख्यातगुणी निर्जरा करता है । दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियों सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक्त्व - मिथ्यात्व का क्षय करते समय दर्शन मोहनीय की क्षपक गुणश्रेणि होती है। आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान में चारित्र मोहनीय का उपशम करते समय छठी गुणश्रेणि होती है । उपशान्त मोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में सातवीं गुणश्रेणि और क्षपक श्रेणि में चारित्र मोहनीय का क्षपण करते हुए आठवीं गुणश्रेणि होती है। क्षीण - मोहनीय नामक बारहवें गुणस्थान में नौवीं गुणश्रेणि, सयोगी केवली नामक १३ वें गुणस्थान में दसवीं गुणश्रेणि और अयोगी केवली नामक १४ वें गुणस्थान में ग्यारहवीं गुणश्रेणि होती है। गोम्मटसार जीव काण्ड में अयोगी केवली गुणश्रेणि के स्थान पर समुद्घात केवली गुणश्रेणि नाम गिनाया गया है। इन सभी गुणश्रेणियों में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। किन्तु कर्म- दलिकों के वेदन का काल उत्तरोत्तर संख्यातगुणा हीन लगता है । अर्थात् कम समय में अधिक-अधिक कर्म दलिकों का क्षय होता है। कर्मदलिकों की रचना को गुणश्रेणि कहते हैं। उपर्युक्त गुणश्रेणियों में असंख्यात गुणे कर्मदलिक उदय में आते हैं।
उक्त ग्यारह प्रकार की गुणश्रेणियों में से यद्यपि प्रत्येक का काल अन्तर्मुहूर्त ही होता है, तथापि प्रत्येक के अन्तर्मुहूर्त का काल उत्तरोत्तर कम होता जाता है तथा निर्जरा का परिमाण सामान्य से असंख्यात गुणा-असंख्यात गुणा होने पर भी उत्तरोत्तर बढता जाता है। अर्थात् परिणामों के उत्तरोत्तर विशुद्ध होने से उत्तरोत्तर कम-कम समय में अधिक-अधिक कर्मों की निर्जरा होती है।
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