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________________ ५१२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण प्रश्न- भगवन्! जीव अनुदीर्ण-उदीरणादिक की उदीरणा करता है तो क्या उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम से करता है अथवा अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य, अपुरुषकार-पराक्रम से? उत्तर- गौतम! जीव अनुदीर्ण-उदीरणा भविक कर्म की उदीरणा उत्थान से, कर्म से, बल से, वीर्य से और पुरुषकार-पराक्रम से करता है।२१२ इसी प्रकार अनुदीर्ण कर्म के उपशम, वेदन एवं निर्जरा में भी जीव उत्थान, कर्म, बल, वीर्य एवं पराक्रम करता है। २१३३ पुरुषार्थ से असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा भारतीय कर्म सिद्धान्त में प्राय: यह माना जाता है कि जिसने एक बार जिन कर्मों का अर्जन कर लिया उसे वे कर्म भोगने ही पड़ते हैं, भोगने पर ही उनसे मुक्ति होती है। किन्तु जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार बांधे हुए कमों को उसी रूप में भोगना आवश्यक नहीं है। उनकी कालावधि एवं तीव्र फलदान शक्ति को समत्व की साधनापूर्वक कम किया जा सकता है। पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति, बंध एवं अनुभाग बंध का अपकर्षण किया जा सकता है। कर्म-साहित्य में कर्म-निर्जरा की क्रमिक अधिकता की दृष्टि से ११ गुणश्रेणियाँ निरूपित हैं। कर्मग्रन्थ, पंचसंग्रह, गोम्मटसार आदि में ११ गुणश्रेणियों का विवेचन प्राप्त होता है। जिनमें उत्तरोत्तर अधिक से अधिक कर्म-निर्जरा होती है। वे ११ गुणश्रेणियाँ इस प्रकार हैं १. सम्यक्त्व की उत्पत्ति में पहली २. देशविरति की उत्पत्ति में दूसरी ३. सर्वविरति की उत्पत्ति में तीसरी ४. अनन्तानुबंधी कषायों की विसंयोजना में चौथी ५. दर्शन मोहत्रिक के क्षय में पाँचवीं ६. चारित्र मोह के उपशमन में छठी ७. उपशांत मोह गुणस्थान में सातवीं ८. चारित्र मोहनीय के क्षय में आठवीं ९. क्षीण मोहनीय में नौवीं १०. सयोगी केवली गुणस्थान में दसवीं ११. अयोगी केवली गुणस्थान में ग्यारहवीं श्रेणि होती है। गुणश्रेणि में उत्तरोत्तर संख्यात गुण हीन-हीन समय में उत्तरोत्तर परिणामों की विशद्धि की अधिकता होते जाने के कारण कमों की निर्जरा असंख्यात गुणी अधिक होती है। अर्थात् जैसे-जैसे मोहनीय कर्म नि:शेष होता जाता है, वैसे-वैसे निर्जरा भी बढती जाती है और उसका द्रव्य प्रमाण असंख्यात गुणा-असंख्यात गुणा अधिकाधिक होता जाता है। फलस्वरूप वह जीव मोक्ष के अधिक निकट पहुँचता जाता है। जहाँ गुणाकार रूप से गुणित निर्जरा का द्रव्य अधिकाधिक पाया जाता है, उसको गुणश्रेणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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