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________________ पुरुषवाद और पुरुषकार ५१७ ऊर्णनाभ इवांऽशूनां चन्द्रकान्त इवाऽम्भसाम्। प्ररोहाणामिव प्लक्षः स हेतुः सर्वजन्मिनाम्।। ८. जिस प्रकार तन्तुओं का कारण ऊर्णनाभ, जल का कारण चन्द्रकान्तमणि तथा जटाओं का कारण वटवृक्ष होता है उसी प्रकार सभी उत्पन्न होने वाले कार्यों का कारण वह पुरुष होता है। विशेषावश्यक भाष्य में गणधर अग्निभूति के मुख से उच्चरित 'पुरुष एव इदं सर्वम् ' वेदवाक्य की व्याख्या में पुरुषवाद को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि जो उत्पन्न हो चुके हैं जो उत्पन्न होने वाले हैं, जो मोक्ष के स्वामी हैं, जो आहार से वृद्धिंगत होते हैं, जो पशु आदि चलते हैं, जो पर्वत आदि नहीं चलते हैं। जो मेरु आदि दूर हैं तथा कुछ नजदीक हैं, जो सबके अन्दर है और जो सबके बाहर हैं, वे सभी पुरुष रूप है। उससे अतिरिक्त कर्म नाम की कोई वस्तु नहीं है। पुरुषवाद के निरसन में मल्लवादी क्षमाश्रमण, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, अभयदेवसूरि के तकों का संक्षेप इस प्रकार है द्वादशारनयचक्र में मल्लवादी कहते हैं कि पुरुष की जाग्रत, सुप्त, सुषुप्ति और तूर्य नामक चार अवस्थाएँ निरूपित की गई हैं। उनमें पुरुष तत्त्व इन चार अवस्थाओं के लक्षण वाला है अथवा ये चार अवस्थाएँ पुरुषादि के लक्षण वाली है? यदि चार अवस्थाएँ स्वयं ही पुरुष हैं तो इन अवस्थाओं से भिन्न किसी पुरुष की सिद्धि नहीं होती। चार अवस्थाओं का समुदाय ही यदि पुरुष है तो यह समुदायवाद मात्र रह जाएगा, पुरुषवाद नहीं। यदि तूर्य अवस्था के प्रतिपादन के लिए इन चार अवस्थाओं का क्रम स्वीकार किया गया है तो इन अवस्थाओं के क्रमिक होने से क्षणिकवाद की आपत्ति आती है। चार अवस्थाओं के चार ज्ञानों की कल्पना करने से कल्पना ज्ञान मात्र ही सत्य रह जाएगा तथा उनका आभास कराने वाली बाह्य वस्तु जैसे स्वप्न में नहीं होती है वैसे नहीं रहेगी। इस प्रकार विज्ञान के अतिरिक्त पदार्थों का शून्यवाद उपस्थित हो जाएगा। ४. यदि यह पुरुष चार अवस्थाओं से एक अवस्था मात्र स्वरूप वाला है तो अन्य अवस्थाओं का अभाव हो जायेगा। यदि प्रत्येक अवस्था में विनिद्रा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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