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________________ ५०६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण "विरता समुट्ठिता कासवस्स अणुधम्मचारिणो'१९२ काश्यप गोत्रीय भगवान महावीर का धर्मानुयायी साधक विरत तथा संयम में समुत्थित होता है। इस प्रकार आगमों में पदे-पदे पराक्रम पर बल दिया गया है। पुरुषकार : जीव का लक्षण उत्तराध्ययन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और उपयोग के साथ वीर्य यानी पराक्रम को भी जीव का लक्षण बताया गया है।९३ व्याख्याप्रज्ञप्ति में यहाँ तक कहा है कि उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम आदि धर्म आत्मा के सिवाय अन्यत्र परिणमन नहीं करते। कहने का अभिप्राय यह है कि पुरुषकार करने में मात्र जीव ही समर्थ हैं। जीव अपने आत्मभाव की अभिव्यक्ति पुरुषकार के माध्यम से ही करता है।१९५ अभिव्यक्ति ही नहीं जीव शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श, गति, स्थिति, लावण्य, यश:कीर्ति के साथ उत्थान, कर्म, बल, पुरुषकार पराक्रम का अनुभव भी करता है।१९६ ___ जीव के लक्षण के अतिरिक्त पुरुषार्थ के स्वरूप के संबंध में भी आगम में चर्चा प्राप्त होती है। गणधर गौतम द्वारा पुरुषकार के स्वरूप के संबंध में प्रश्न करने पर भगवान महावीर फरमाते हैं- 'उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे, तं चेव जाव अफासे पन्नत्ते १९७ उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम सभी जीव के उपयोग विशेष हैं, इस कारण अमूर्त होने से वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से रहित हैं। चारित्र धर्म : पुरुषार्थ का द्योतक ___ स्थानांग सूत्र में श्रुतधर्म और चारित्र धर्म के रूप में दो प्रकार के धर्म प्रतिपादित हुए हैं- 'दुविहे धम्मे पण्णत्ते तंजहा- सुयधम्मे चेव, चरित्त धम्मे चेव १८ श्रुत धर्म ज्ञान का तथा चारित्र धर्म आचरण का द्योतक है। यह चारित्र धर्म पुरुषार्थ या पुरुषकार को ही ख्यापित करता है। चारित्र धर्म की सत्प्रेरणा देते हुए उत्तराध्ययन में कहा है किरियं च रोयए धीरे, अकीरियं परिवज्जए। . दिट्ठीए दिद्वि-संपन्ने, धम्म चर सुदुच्चरं।।११९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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