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पुरुषवाद और पुरुषकार ५०५ १. मनुष्यत्व २. धर्म-श्रवण ३. धर्म-श्रद्धान ४. संयम में पराक्रम- ये चारों जीव को दुर्लभता से प्राप्त होते हैं। इसी अध्ययन में दुर्लभ चतुष्टय में भी संयम में पराक्रम को सबसे दुष्कर प्रतिपादित किया गया है।८३ जिससे संयम में पराक्रम का महत्त्व जैन द्रष्टि से सर्वथा स्पष्ट हो जाता है। संयम में पराक्रम का फल अनास्रव के रूप में जीव को प्राप्त होता है।८४
संयम के स्थानांग सूत्र में चार प्रकार प्रतिपादित हुए हैं- मन संयम, वचन संयम, काय संयम और उपकरण संयम।८५ इसी प्रकार त्याग के भी चार प्रकार कहे गए हैं- मन त्याग, वचन त्याग, काय त्याग और उपकरण त्याग।८६ संयम और त्याग के ये प्रकार पुरुषार्थ की व्यापकता को निरूपित कर रहे हैं। प्रत्येक स्तर पर संयम एवं त्याग हो, इसके लिए भगवान ने अनेक स्थान पर पराक्रम का उपदेश देते हुए कहा है• "पुरिसा! परमचक्खू! विपरिक्कम।'
परिग्रह त्याग के परिप्रेक्ष्य में कहा है- हे परमचक्षुषमान् पुरुष! तू पराक्रम कर। "तम्हा अविमणे वीरे सारए समिए सहिते सदा जते' मुनि सदा अविमना, प्रसन्नमना, स्वारत, समित सहित, वीर होकर संयमन करे।
'जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सातं......जाव सोत पण्णाणा अपरिहीणा जाव णेत्तपण्णाणा अपरिहीणा जाव घाणपण्णाणा अपरिहीणा जाव जीहपण्णाणा अपरिहीणा जाव फासपण्णाणा अपरिहीणा इच्चेतेहिं विरूवरूवेहिं पण्णाणेहिं अपरिहीणेहिं आयटुं सम्मं समणुवासेज्जासि त्ति बेमि। १९८९
प्रत्येक प्राणी का सुख और दुःख अपना-अपना है, इसलिए जब श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय की प्रज्ञान शक्ति हीन नहीं हुई है तब तक आत्महित के लिए सम्यक् प्रकार से प्रयत्न करना चाहिए। "अणुसासणमेव पक्कमे, वीरेहिं सम्मं पवेदियं १९० जिनेश्वर के द्वारा निरूपित अनुशासन में पराक्रम करो। 'बुजिझज्ज तिउट्टेज्जा, बंधणं परिजाणिया' ९१ बन्धन को जानकर, बंधन को तोड़ो।
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