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४९८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण ईश्वर को शरीर की अपेक्षा से सर्वव्यापी कहा है। श्रुति भी है- "विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतः पाणिरुत विश्वतः पपात्" ईश्वर सर्वत्र नेत्रों का, मुख का, हाथों का और पैरों का धारक है।५८ (४) ईश्वर जगत्सर्जन में स्वतन्त्र भी नहीं
पूर्वपक्ष (न्याय वैशेषिक)- ईश्वर स्वतंत्र (स्ववश) है, क्योंकि वह अपनी इच्छा से ही सम्पूर्ण प्राणियों को सुख-दुःख का अनुभव कराने में समर्थ है।५९ कहा भी है
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा।
अन्यो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखायोः।। ईश्वर द्वारा प्रेरित किया हुआ जीव स्वर्ग और नरक में जाता है। ईश्वर की सहायता के बिना कोई अपने सुख-दुःख उत्पन्न करने में स्वतंत्र नहीं है।
ईश्वर को परतन्त्र स्वीकार करने में उसके परमुखापेक्षी होने से, मुख्य कर्तृत्व को बाधा पहुँचेगी जिससे कि उसका ईश्वरत्व ही नष्ट हो जाएगा।२६०
उत्तरपक्ष (मल्लिषेणसूरि)- यदि ईश्वर स्वाधीन होकर जगत् को रचता है और वह परम दयालु है, तो वह सर्वथा सुख-सम्पदाओं से परिपूर्ण जगत् को न बनाकर सुख-दुःख रूप जगत् का क्यों सर्जन करता है? यदि कोई कहे कि जीवों के जन्मान्तर में उपार्जन किये हुए शुभ-अशुभ कर्मों से प्रेरित ईश्वर जगत् को बनाता है, तो फिर ईश्वर के स्वाधीनत्व का ही लोप हो जाता है। अतएव ईश्वर अनीश्वर (असमर्थ) है, स्वतंत्र नहीं।१६१ .
"तदेवमेवंविधदोषकलुषिते पुरुषविशेषे यस्तेषां सेवाहेवाकः स खलु केवलं बालवन्मोहविडम्बनापरिपाक इति'१६२ इस प्रकार अनेक दोषों से दूषित पुरुषविशेष ईश्वर को जगत् के कर्ता मानने का आग्रह केवल बलवान मोह की विडम्बना का ही फल है।
इस प्रकार जैनाचार्य शीलांक, अभयदेवसूरि, प्रभाचन्द्र एवं मल्लिषेणसूरि के द्वारा ईश्वरवाद के खण्डन में प्रदत्त तर्क महत्त्वपूर्ण है। जैनदर्शन की मान्यता है कि ईश्वर जगत् का रचयिता नहीं है वह जीवों को शुभाशुभ कर्मों का फल भी प्रदान नहीं करता है। सांख्यतत्त्वकौमुदीकार वाचस्पतिमिश्र ने भी ईश्वर की मान्यता का निरसन
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