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पुरुषवाद और पुरुषकार ४९७ इस कारण सशरीर और अशरीर दोनों पक्षों में कार्यत्व हेतु की सकर्तृत्व साध्य के साथ व्याप्ति सिद्ध नहीं होती।५३ (२) जगत् का निर्माण एक ईश्वर द्वारा संभव नहीं
पूर्वपक्ष- यदि बहुत से ईश्वरों को संसार का कर्ता स्वीकार किया जाय तो एक दूसरे की इच्छा में विरोध उत्पन्न होने के कारण एक वस्तु का अन्य रूप में निर्माण होने से संसार में असमंजस उत्पन्न हो जायेगा। अत: ईश्वर एक है।५४
उत्तरपक्ष (मल्लिषेणसूरि)- यह कथन एकान्त सत्य नहीं है। क्योंकि सैकड़ों कीड़ियाँ एक ही ब्रामी को बनाती हैं, बहुत से शिल्पी एक ही महल को बनाते हैं, बहुत सी मधुमक्खियाँ एक ही शहद के छत्ते का निर्माण करती हैं, फिर भी वस्तुओं की एकरूपता में कोई विरोध नहीं आता। यदि फिर भी आप बामी, प्रासाद आदि का कर्ता ईश्वर को ही मानते हो तो इससे ईश्वर के प्रति आप लोगों की निरुपम श्रद्धा ही प्रकट होती है। इस तरह तो जुलाहे और कुंभकार आदि को पट और घट आदि का कर्ता न मानकर ईश्वर को ही इनका भी कर्ता मान लेना चाहिये।५५
इस प्रकार मतिभेद के भय से आपके द्वारा एक ईश्वर की कल्पना करना वैसे ही है जैसे कोई कृपण पुरुष खर्च के भय से अपने स्त्री-पुत्रादि को छोड़कर वन में चला जाता है।९५६ (३) ईश्वर की सर्वज्ञता का निरसन
पूर्वपक्ष (न्याय वैशेषिक) - न्याय-वैशेषिक कहते हैं कि यदि ईश्वर को नियत प्रदेश में ही व्याप्त माना जाय तो अनियत स्थानों के तीनों लोकों के समस्त पदार्थों की यथारीति उत्पत्ति संभव न होगी। जैसे कुम्भकार एक प्रदेश में रहकर नियत प्रदेश के घटादिक पदार्थ को ही बना सकता है, वैसे ही ईश्वर भी नियत प्रदेश में रहकर अनियत प्रदेश के पदार्थों की रचना नहीं कर सकता। इसलिए ईश्वर सर्वव्यापी है। ईश्वर सब पदार्थों को जानने वाला है, क्योंकि यदि ईश्वर को सर्वज्ञ न मानें तो यथायोग्य उपादान कारणों के न जानने के कारण वह ईश्वर अणुरूप कार्यों की उत्पत्ति न कर सकेगा।१५७
उत्तरपक्ष (मल्लिषेण सूरि)- ईश्वर का सर्वगतत्व शरीर की अपेक्षा से है अथवा ज्ञान की अपेक्षा से? प्रथम पक्ष में ईश्वर का अपना शरीर ही तीनों लोकों में व्याप्त हो जाएगा, फिर दूसरे बनाने योग्य (निर्मेय) पदार्थों के लिए कोई स्थान ही न रहेगा। ईश्वर को ज्ञान की अपेक्षा सर्वगत मानने पर वेद से विरोध आता है। वेद में
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