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४९६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
कर्तास्ति कश्चिज्जगतः स चैकः स सर्वगः स स्ववशः स नित्यः। इमाः कुहेवाकविडम्बनाः स्युस्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम्।।४४
हे नाथ! जो अप्रामाणिक लोग १. जगत् का कोई कर्ता है २. वह एक है ३. सर्वव्यापी है ४. स्वतंत्र है और ५. नित्य है आदि दुराग्रह से परिपूर्ण सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं, उनका तू अनुशास्ता नहीं हो सकता।
स्याद्वादमंजरी नामक टीका में मल्लिषेण सूरि (१२९३ ई. शती) ने हेमचन्द्रसूरि (१०७८ ई.शती) के मन्तव्य का विस्तार से विवेचन करते हुए ईश्वरवाद का खण्डन प्रस्तुत किया है। उन्होंने खण्डन के पूर्व पूर्वपक्ष का भी प्रामाणिक निरूपण किया है। (१) ईश्वर जगत्कर्ता नहीं
पूर्वपक्ष (न्याय-वैशेषिक)- पृथिवी, पर्वत, वृक्ष आदि पदार्थ किसी बुद्धिमान कर्ता के बनाये हुए हैं; क्योंकि ये कार्य हैं। जो कार्य होते हैं वे सब किसी बुद्धिमान कर्ता के बनाये हुए होते हैं जैसे घट, पृथिवी पर्वत आदि। यह बुद्धिमान कर्ता ईश्वर है।१४९
उत्तरपक्ष (मल्लिषेण सूरि)- 'तदयुक्तम्, व्याप्तेरग्रहणात्' आपका अनुमान अयुक्त है, क्योंकि इस अनुमान में व्याप्ति का ग्रहण नहीं होता।
प्रश्न उपस्थित होता है कि ईश्वर ने शरीर धारण करके जगत् को बनाया है अथवा शरीर रहित होकर। यदि ईश्वर ने शरीर धारण करके जगत् को बनाया है तो वह शरीर हम लोगों की तरह दृश्य था अथवा पिशाच की तरह अदृश्य? यदि वह शरीर हमारी तरह दृश्य था, तो इसमें प्रत्यक्ष से बाधा आती है।५०
ईश्वर पिशाच आदि के समान अदृश्य शरीर से जगत् की सृष्टि करता है और आप इसमें ईश्वर के माहात्म्य विशेष को कारण स्वीकार करते हो, यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि ईश्वर का माहात्म्य विशेष सिद्ध होने पर उसका अदृश्य शरीर सिद्ध होगा और अदृश्य शरीर सिद्ध होने पर माहात्म्यविशेष सिद्ध होगा जिससे इतरेतराश्रय दोष का प्रसंग बनेगा।५१
यदि ईश्वर ने शरीर रहित होकर जगत् को बनाया है, ऐसा मानेंगे तो ईश्वर को अशरीरस्रष्टा मानने में दृष्टांत और दार्टान्तिक विषम हो जायेंगे, क्योंकि घटादि निर्माता के दृष्टान्त शरीर सहित कर्ता के होते हैं। ५२
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