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पुरुषवाद और पुरुषकार ४९५ सांख्यतत्त्वकौमुदी में ईश्वरवाद का खण्डन
सांख्यकारिका की पंक्ति 'इत्येष प्रकृतिकृतो महदादिविशेषभूतपर्यन्तः' [यह सर्ग (सृष्टि) प्रकृति महत, भूतादि से निर्मित है- का विवेचन करते हुए कौमुदीकार वाचस्पति मिश्र लिखते हैं कि “आरम्भः सर्गो महदादिभूतान्तः प्रकृत्यैव कृतो नेश्वरेण, न ब्रह्मोपादानो नाप्यकारणः । ४४३ अर्थात् यह सृष्टि प्रकृति द्वारा की गई है, ईश्वर द्वारा नहीं। यह सृष्टि ब्रह्म-रूप उपादान-कारण का परिणाम नहीं है और न बिना किसी कारण के ही यह सृष्टि हुई है।
ईश्वरवाद को लक्ष्य कर कौमुदीकार ने जो खण्डन किया है, वह इस प्रकार है१. यह सृष्टि ईश्वर द्वारा अधिष्ठित प्रकृति से नहीं हो सकती, क्योंकि जो
व्यापारहीन (निष्क्रिय) होता है वह किसी का अधिष्ठाता नहीं होता। यथा
निष्क्रिय बढई वसूले आदि का प्रयोग किसी कार्य में नहीं कर सकता। ४४ २. जगत् की सृष्टि में ऐश्वर्यशील सृष्टिकारी ईश्वर की कोई कामना नहीं हो
सकती, क्योंकि वे आप्तकाम(जिसकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) है।०५। ३. सृष्टि करने में ईश्वर की कोई करुणा नहीं हो सकती, क्योंकि सृष्टि के पूर्व
जीवों के इन्द्रिय, शरीर और विषयों की उत्पत्ति न होने से उनको दुःख का बोध नहीं होता, अत: किस दुःख को दूर करने की इच्छा ईश्वर को होगी। यदि सृष्टि के बाद आविर्भूत जीवों को देखकर करुणा होती है- ऐसा माना जाए तो 'करुणा से सृष्टि होती है और सृष्टि होने पर करुणा-रूप मनोभाव
उत्पन्न होता है' इस प्रकार का अन्योन्याश्रय दोष उत्पन्न हो जाएगा। ४. यदि ईश्वर करुणा से प्रेरित होकर सृष्टि करते हैं तो उन्हें केवल सुखी
प्राणियों की ही सृष्टि करनी चाहिए, विचित्र (बहुविध सुख-दुःखोत्पादक कर्माशय युक्त) प्राणियों की नहीं। इसके समाधान में यह कहा जाय कि कर्म की विचित्रता होने से उसके फल भी विचित्र हो जाते हैं, तो ईश्वर को अधिष्ठाता मानने की क्या आवश्यकता है?
इस प्रकार सांख्य दार्शनिक व्यापारहीनता (निष्क्रियता), आप्तकामता और कारुण्याभाव के तर्क से ईश्वरवादियों के मत को असंगत स्थापित करते हैं। स्याद्वादमंजरी के अनुसार ईश्वरवाद का प्रत्यवस्थान
ईश्वर के जगत्कर्तृत्व में दूषण देते हुए आचार्य हेमचन्द्रसूरि (१०७८ ई.शती) ने अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका में कहा है
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