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________________ ४९४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण प्रभाचन्द्र- अचेतन का चेतन से अधिष्ठित होकर कार्य करना असंगत है, क्योंकि चेतन को भी अन्य चेतन की प्रेरणा की आवश्यकता रहती है। जैसे- पालकी चलाने वालों को स्वामी की प्रेरणा रहती है, अतः महेश्वर में भी अन्य प्रेरक की कल्पना करनी चाहिए।' इस प्रकार महेश्वर में भी अन्य चेतन अधिष्ठायक की कल्पना से अनवस्था दोष आता है। , १३८ ईश्वर अदृष्ट की अपेक्षा लेकर कार्यों को करता है तो उस कार्य में अदृष्टकृत उपकार भी रहता है। क्योंकि अनुपकारक की अपेक्षा नहीं हुआ करती है। यदि अदृष्ट के उपकार को ईश्वर से भिन्न मानते हैं तो दोनों का संबंध नहीं बनता है और संबंध की कल्पना करें तो अनवस्था आती है। १३९ इसके अतिरिक्त अन्य तर्कों से भी जैनाचार्य प्रभाचन्द्र ने ईश्वरवादी के मत का निरसन किया है सहकारी की अपेक्षा लेकर कार्यों को उत्पन्न करना ईश्वर का स्वभाव है, ईश्वरवादी का यह कथन असत् है। क्योंकि यदि वह स्वभाव अदृष्ट आदि सहकारी के मिलने के पहले भी है, तो आगामी काल में होने वाले जितने कार्य है वे सारे उसी समय हो जायेंगे। कारण कि जो जिस समय जिसको उत्पन्न करने में समर्थ होता है वह उस समय उस कार्य को अवश्य करता है, जैसे- अंतदशा को प्राप्त हुआ बीज अंकुर को उत्पन्न करा देता है। ईश्वर में पहले से ही उत्तरकालीन सकल कार्यों को उत्पन्न करने की सामर्थ्य रहती है, क्योंकि वह सदा एक सा स्वभाव वाला है, है. यदि उस समय सकल कार्यों को उत्पन्न नहीं करता है तो ईश्वर में कार्योत्पत्ति के सामर्थ्य का अभाव हो जाएगा। ' १४० ईश्वरवादी कहते हैं कि ईश्वर में सकल कार्योत्पत्ति की सामर्थ्य रहती है, किन्तु सहकारी का अभाव होने से उत्पन्न नहीं करता है। १४१ यह बात असंगत है। जो स्वयं समर्थ स्वभाव वाला है वह पर की अपेक्षा नहीं रखता है। क्योंकि समर्थ स्वभावी हो और पर की अपेक्षा भी रखने वाला हो, यह विरुद्ध बात है। १४२ यदि ये सहकारी कारण ईश्वर निर्मित हैं तो वही एक साथ कार्य करना रूप आपत्ति खड़ी हैं और ईश्वर के द्वारा निर्मित नहीं है तो वही कार्यत्व हेतु व्यभिचारी हुआ, क्योंकि सहकारी तो कार्य होते हुए भी ईश्वरकृत नहीं है। इस प्रकार ईश्वर के अनादि निधन सिद्ध नहीं होने से जगत् कर्तृत्वरूप ईश्वर की सिद्धि नहीं होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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